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लेखक बनने के लिए
पं.अमृतलाल नागर से भेंटवार्ता
(वर्ष 1986 मे नागर जी से की गयी मुलाकत के अंश)
पुराने लखनऊ मे चौक मुहल्ले का अलग स्थान है।एक ओर बडा इमामबाडा ,भूलभुलौया,गोलदरवाजा,घण्टाघर मेडिकल कालेज आदि प्रसिद्ध इमारतें तो दूसरी ओर भांग ठंडाई वालो की पुरानी दूकाने यहां की गलियो में कहीं बेले की माला बेचने वाले बरबस आपके गले मे माला डाल देंगे तो कहीं वेश्याओ के उजडे हुए कोठे सुनसान दिखाई पडेंगे।आसपास ही आप आप की भाषा मे हंसी मजाक करते हुए लोग भी मिल जाएंगे।यहीं एक गली में थोडी दूर चलकर ही एक भव्य कोठी है।जिसके दृढ और विशाल कपाटों को देखकर ही उसकी प्राचीनता और भव्यता का प्रमाण मिल जाता है।इसी मे प्रसिद्ध सिने अभिनेता शशिकपूर ने अपनी फिल्म जुनून का छायांकन किया था।यही कोठी प्रख्यात कथाकार उपन्यासकार पं.अमृतलाल नागर जी का निवास स्थान रहा है।इधर का इलाका आरम्भ से ही रंगीनियो का और मस्तियो का इलाका रहा है।
यह मुलाकात सन 1986 मे की गयी थी।उनदिनो बाबू जी अस्वस्थ चल रहे थे।यद्यपि उस समय उनकी दृष्टि और श्रवण शक्ति कमजोर हो रही थी किंतु उनकी सर्जनात्मक शक्ति एवं चिंतनजन्य आनन्द उन्हे सतत कुछ नया देने के लिए संकल्पबद्ध करता जाता था।तभी उनसे लखनऊ यात्रा मे युवारचनाकार मंच की ओर से नवलेखन पर की गयी एक मुलाकात के कुछ अंश-
भा.मि.-उपन्यासों के प्रचार प्रसार और विस्तार के आगे नाटको का विस्तार कम हो गया है,जबकि पहले नाटक मे ही उपन्यास के सारे तत्व मिल जाया करते थे।आपकी दृष्टि में इसका मुख्य कारण क्या है?
नागर जी-
नाटक की परंपरा भारत मे बाहरी आक्रमणो के कारण समाप्त हो गयी।पहले वही खेले जाते थे तब उन्ही का विस्तार भी था।नाटक बडी व्यवस्था चाहता है।उपन्यास को केवल पाठक चाहिए।संस्कृत मे कादम्बरी उपन्यास है।दशकुमारचरित,कथासरितसागर,हितोपदेश आदि मे कहानियां हैं।संकृत मे कथा लेखन काफी विस्तार मे मिलता है-नाटको का तो है ही।आधुनिक काल में हिन्दी मे नाटक तो प्रारंभ हुए परंतु कुछ परिस्थितियां ऐसी हुईं कि हमारे देश में हिन्दी का पेशेवर रंगमंच नही बना।शौकिया रंगमंच बाबू भारतेन्दु आदि ने शुरू किया लेकिन महाराष्ट्र मे आज भी रंगमंच है।परंतु वह हिन्दी से नही विकसित हुआ।वह व्यवस्थित है ,इसीलिए वहां थियेटर चलते हैं।रंगमंच की दृष्टि से इतनी प्रौढता भारत में कहीं भी नही आयी कि केवल नाटक ही देखे जायें यदि ऐसा होता तो शायद उपन्यास कम पढे जाते।नाटक पढने के लिए नही लिखे जाते।दूरदर्शन रेडियो आदि पर कितनी खपत हो सकती है।अत: उपन्यास विधा आगे आयी और यह विधा विस्तृत होती गयी।निराला जी भी नाटक लिखना और मंचन करना चाहते थे।एक संस्था भी बनी किंतु कुछ हुआ नही।
भा.मि.-
आपके द्वारा आनूदित विष्णुभट्ट कृत ‘मांझा प्रवास’का हिन्दी अनुवाद ‘आंखों देखा गदर’नवभारत टाइम्स दैनिक मे छपा।देश मे इसप्रकार का जीवंत इतिहास विभिन्न भाषाओ मे बिखरा पडा होगा।फिर हिन्दी के रचनाकारो की दृष्टि इस ओर क्यो नही पडती?
नागर जी-
हमारे यहां दिक्कत ये है कि पिछले कुछ वर्षो में साहित्य के किसी भी पक्ष उपन्यास हो या कविता किसी विधा की उचित समीक्षा नही मिलती है।हिन्दी के बुद्धिजीवियो मे भी यह कमी है कि वह जीवंत इतिहास को पहचानने की ललक नही रखता।फिरभी दृष्टि ही न जाती तो गदर के फूल कैसे लिखता मैं।हम अंग्रेजी के माद्ध्यम से ही अन्य भारतीय भाषाओ को पढते हैं।यदि उसी भाषा मे पढे तो अच्छा हो बिना भाषा को समझे उस भाषा के साहित्य को समझा तो जा सकता है परंतु अनुभव की तरलता और संवेदनाओ का स्पर्श नही किया जा सकता।यह परिश्रम हर व्यक्ति के बस का नही है।इसीलिए नवलेखन मे मौलिकता का प्राय: अभाव सा दिखता है।
भा.मि.-
इधर भाषा के आधार पर रचनाकारो में प्रांतीयता या क्षेत्रीयता ही अधिक देखने को मिल रही है।हिन्दी के लोग हिन्दी भाषी प्रांतो तक ही जाने माने जाते हैं।हिन्दी के रचनाकार अहिन्दी भाषी प्रांतो मे जनमे महापुरुषो तथा उनके आदर्शो पर क्यो नही लिखते? जबकि रचनाकार तो वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा मे ही जीता है?
नागर जी-दक्षिण भारत या अन्य क्षेत्रो से जुडे लोगो के बारे मे कहा है(लिखा है)पर वह कम है।यह कमी तो हमारे बुद्धिजीवी की ही है।दूसरी ओर यह जागरूकता का प्रश्न है।रवीन्द्र जी के साहित्य में ...कंचन...की बात है जो जागरूक साहित्यकार होता है वह इन सब बातो का ध्यान रखता है।भाषा का विरोध राजनैतिक स्तर पर है।मै 1945 मे मद्रास गया था।वहां शिक्षक रखकर मैने तमिल सीखी।वहां भी लोग हिन्दी पढते और सीखते हैं इसके अतिरिक्त अध्ययन प्रवास और पर्यटन भी आवश्यक है।समंवय की दृष्टि लाने के लिए यह आवश्यक है।वस्तुत:रचनात्मक कार्य के लिए यह आवश्यक नही कि किसी क्षेत्र विशेष या व्यक्तिविशेष के लिए आग्रह हो।कहानी मानव की है आप यह कह सकते हैं लेखन मे आज उस तरह की स्फूर्ति नही है।आज लेखक के संघर्ष हैं उसकी समस्या जीविकोपार्जन है।अत: वह जिज्ञासा को जागृत भी नही कर पाता भारत ही क्या विश्व की बात का पता भी और वहां के आदर्शो का चित्रण होना चाहिए।आवश्यक मात्रा आदिसे बचने के लिए हमे सीमित रह जाना पडता है।
भा.मि.-
करवटें उपन्यास के बाद आपने इधर कुछ नया शुरू किया था।उसके बारे मे कुछ बतलाइए?
नागर जी-करवटें मे 1850 से 1902 तक का एक ऐतिहासिक कालखण्ड है।इस नई कृति में 1902 से अ986 यानी आजतक की बात कहना लक्ष्य है।बीसवीं सदी के अंग्रेजी पढे लिखे मध्यवर्गीय समाज की समस्याओ को हमने इसमे लिया है।शीर्षक बाद मे रखेंगे।इधर हमारी दृष्टि भी शिथिल हो रही है।श्रवण शक्ति तो पहले से ही कमजोर है।बिना पढे तो कुछ लिखा ही नही जा सकता।अभी तक चौथाई कार्य ही हुआ है।धीरे धीरे प्रयास चल रहा है।
भा.मि.-गद्यलेखन में विशेषत: कथात्मक लेखन के लिए आपकी दृष्टि मे कौन सी बातो का ध्यान रखना आवश्यक है?
नागर जी-
संस्कृत मे एक उक्ति है-जिसका अर्थ है-देशाटन राजदरबार, वेश्या का घर,हाट इन सबको घूमे बिना कोई कवि या लेखक नही बन सकता।मै मेहतओ के पीछे घूंमा हूं।कोठो पर गया हूं।पर्यटन किया है।दस प्रतिशत प्रतिभा और नब्बे प्रतिशत श्रम लेखक को अच्छा लेखक बनाता है।हिन्दी मे प्रतिभा की कमी नही है।दिशा की कमी है।जमीन पर पैर नही रक्खा ब्रम्ह की बात करने लगे।संस्कृति लचीली होती है जो जडता नही सिखाती।जंहा जडता है वहां प्रगति कैसे संभव है।समय को पहचानिए समय के साथ चलिए।तब तो कुछ बात बनेगी।
प्रस्तुति :भारतेंदु मिश्र
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कहानी-
गुलाबी रूमाल
# भारतेंदु मिश्र
वो आठ नवम्बर की शाम थी| टीवी पर खबर सुनके बैठके में नोटबंदी की खबर पर चर्चा होने लगी| रज्जो जादा पढी लिखी न थी लेकिन,इतना समझ गयी थी कि रात बारह बजे के बाद से हजार और पांच सौ के नोट बाजार में चलने बंद हो जायेंगे| प्रधान मंत्री जी जिस तरह हर चैनल पर हाँथ हिलाकर नोटबंदी की घोषणा करते दिखाई दे रहे थे -लोग हैरत में थे| रज्जो के मन में भी एक डर बैठ गया था| उसको लगा कि शायद कोई उसे ही लूटे ले रहा हो, या कि कोई उसका गला घोटे दे रहा हो और वह रो नहीं पा रही है| टीवी पर खबर सुनके रज्जो बुआ बैठक से भीतर वाले कमरे में आ गयीं | इस मर्माहत करने वाली खबर के बाद आज की अन्य किसी खबर में उसकी कोई दिलचस्पी न थी| लेकिन रज्जो बैठके से ऐसे उठी कि जैसे यह खबर उसके काम की ही नथी| खबर सुनके नरेंद्र ने अपनी पत्नी से कहा -‘सुनती हो,बारदाने के जो बीस हजार रुपये रखे है वो सब बदलने पड़ेंगे...ये एक नई मुसीबत आ गयी..’
‘ हमारा तो ठीक है लेकिन ... भगवानी दादा....,जो हराम कि कमाई आवत है..उनका का होई ?...जो चार साल में गाडी –कोठी सब खरीद लिए हैं |’
‘अरे ,वो सब विधायक जी के आदमी है | उनकी चिंता न करो वो सब नोट बदल लेंगे ..तुम आपन फिकिर करो| ..रज्जो जीजी से पूछ लेव उनके पास ..सायद ..कुछ नोट पड़े हो|’
‘उनके पास कहां?...पिछले महीना कमल को जब डेंगू हुआ रहा तब पूछा रहे ...दीदी के पास होता तो निकाल के देती ..वो कमल से बहुत प्यार करती है|’
‘तो ठीक है ,चलो हमको ज्यादा परेशानी नहीं है| अच्छा हुआ कुछ तो नकली नोट बंद होंगे ..’ रज्जो के कान दीवार में चिपक गए थे|उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी|उसका दुःख ऐसा था कि जिसे कोई समझ नही सकता था, समस्या ऐसी कि वो परिवार में किसी से कह भी न सकती थी| तीन साल पहले पति के स्वर्गवासी होने के बाद अपने मायके रुकंदीपुर में हमेशा के लिए आ गयी थी| धन्य है हमारा ग्रामीण और कस्बाई समाज जो आज भी बहुत कुछ सदियों पुरानी रीति रिवाज से जकड़ा है,और रिश्तो की शर्म अभी बाकी है | नरेंद्र ने बहन रज्जो को घर में रहने का अभयदान दे रखा था| बेवा निपूती रज्जो रुकंदीपुर लौट के ना आती तो आखिर और कहाँ जाती? पति बहुत चाहता था रज्जो को लेकिन विधवा होने के बाद देवर और उसकी पत्नी ने एक महीने में ही रज्जो को बेघर कर दिया| परिवार में जायदात के नाम पर खेती भी न थी| ले दे कर एक परचून की दूकान थी वो अब देवर महेश ही चलाता था| बस वही उस परिवार के भरन पोषण का साधन था| रज्जो ने पति के इलाज के समय अपना धराऊ जेवर बेच दिया था| आदमी तो नहीं बचा लेकिन इलाज और क्रिया से बचे हुए उसके पास हजार के दस नोट जरूर थे| वो उसने सबसे छिपाकर रखे थे|
रज्जो ने तभी से एक बक्से में अपनी धराऊ पुरानी साड़ियों के बीच में उन नोटों को छिपा रखा था,बक्से में सदा ताला लगाये रहती, चाभी लाकेट की तरह अपने गले में पहने रहती| ताकि उसके अलावा कोई दूसरा उसे न खोले| भाभी ने एक दो बार पूछा भी कि इस बक्से में ऐसा क्या है ? तो रज्जो ने जवाब दिया था –‘अरे कोई संपदा तो है नहीं कुछ तुम्हारे जीजा के ख़त है| वो ख़ास हमारे लिए लिखे गए हैं |दो साड़ी है- जो वो हमारे लिए बड़े मन से लाये थे|उनकी दो तस्बीर हैं|सुबह नहा धो के हम उनका ध्यान करती है..बस| जेवर सब उनकी बीमारी में बिक गया था..’
लेकिन आज रज्जो को नीद न आयी| जब सब सो गए तो धीरे से रज्जो ने अपना बक्सा खोला रात की मद्धिम रोशनी में गुलाबी साडी के पल्लू के नीचे छिपाकर रखे हुए हजार वाले उन नोटो को आहिस्ता से निकाला फिर इधर उधर देखकर उन्हें दो बार गिना| इसके बाद फिर वही रखने लगी लेकिन मन न माना,कभी लाल और बैंजनी छवि वाले सब नोटों को नजदीक से निहारा फिर चूमा और तीसरी बार गिनकर उसी पल्लू के नीचे छिपाकर रख दिया| ये बात उसने किसी से न बतायी थी| डेंगू होने पर भतीजे कमल के इलाज के वक्त भी उसने नोट नही निकाले हालांकि उसके स्वस्थ होने के लिए माता का व्रत पूजा करने में वो पीछे न थी| समय पर इलाज हो गया तो कमल बच भी गया|लेकिन रज्जो बुआ के नोटों का राज किसी को जाहिर न हो पाया| अपने प्यारे भाई –भौजी और कमल के साथ उसने जो छल किया था वह उसे आज बेचैन किये जा रहा था| उसने उठकर पानी पिया|कुछ बेचैनी कम हुई फिर उसे याद आया ,मरते वक्त पतिदेव ने उसे समझाया था-‘रज्जो ! हम रहै न रहै,इस जमाने में पैसा दबा के रखना आखिर में वही काम आयेगा|’ अब जब पति परमेश्वर चले गए तो उनकी बात का पालन उसने नियम से किया ...इसमे धोखा कैसे..हुआ?| फिर भी आज उसकी हिम्मत डोल गयी थी| ऐसा कुदिन आयेगा उसने सोचा ही न था|अब उसके नोट बेकार हो गए थे|..मुसीबत ये थी कि वो नोट बदले कैसे ? रात भर पति की हिदायत याद करती रही| भाई के निस्वार्थ प्रेम और रिश्ते को लेकर मन ही मन शर्मसार होती रही | कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था| अपने भाई भाभी की नजरो में गिर जाने की आशंका अलग से उसे खाए जा रही थी|अगर कमल की बीमारी में वो ये रुपये भाई को दे ही देती तो ठीक होता,लेकिन अब क्या हो सकता है ?..उस वक्त का झूठ अब उसे छिपाने के लिए क्या बहाना बनाए..सब साफ़ बता देने से भाई, भाभी और बेटे जैसे भतीजे कमल का विश्वास खो जाएगा|..पता नहीं बहन की इस धोखेबाजी को नरेंद्र क्या समझेगा ? समझेगा भी कि नहीं? क्या किया जाए इसी ऊहापोह में वह डूबी थी,तभी उसे बक्से में वो गुलाबी रूमाल नजर आया| ये उसी धराऊ साडी के साथ उसके पति ने दिलवाया था| रज्जो की आखें चमक गयीं |उसने सभी नोट उस रूमाल में बांधे और अपने सीने में ब्लाउज में छिपाकर रख लिए| सुबह होने वाली थी| जल्दी तैयार होकर मंदिर के लिए निकल पडी|
दिमाग में उधेड़बुन चलती रही उसने सोचा कि मंदिर में दान कर दूँ-पति परमेसुर के नाम से,लेकिन भगवान ने हमारी कौन सी सुन ली है- फिर विचार आया कि पंडित जी को देकर नोट बदलवा लिया जाए..लेकिन उसको भी कहानी बतानी पड़ेगी- वो कौन हमारा सगा है,ये बेईमानी कर लेगा तब ?गाँव में सबको हमारे झूठ का पता चल जाएगा..सब हमारे नाम को थूकेंगे| ..अब इस उम्र में लगी झूठ की कालिख कैसे पुछेगी ?...पैसा कोई चोरी का तो है नही ...कालाधन थोड़े है| मंदिर में काली की मूर्ति के सामने वो देर तक देवी की स्तुति करती रही|आखें बंद करते ही सब काला नजर आने लगा| उसने जल्दी से आखें खोल ली| मंदिर का एक चक्कर लगाया|घंटा बजाया ... इस बार फिर उसने ध्यान के लिए आखें बंद की तो भाई भाभी और कमल का चेहरा नजर आने लगा- अब उसने देखा कि भाभी के हाथ में खप्पर है,भाई के हाथ में त्रिशूल है और कमल के हाथ में तलवार है|तीनो उसके गुलाबी रूमाल में बंधे रूपये छीनने को आगे आ रहे है| ..उसने फिर आँख खोली और बुदबुदाने लगी-कालाधन नहीं है ..कालाधन नहीं है..|
पंडित ने पूछ लिया-‘का हुआ रज्जो बुआ?’
कुछ नहीं पंडित जी सब ठीक है| रज्जो ने सोचा चलो बैंक की तरफ देख के आते हैं| वह स्टेशन के पास कस्बे के एक मात्र पंजाब नेशनल बैंक के निकट पहुँच गयी | वहां हजारो की भीड़ लगी थी|पुलिस वाले लाठी भांज रहे थे| उसने औरतो की लाइन के पास जाकर देखा वहां भी लम्बी लाइन थी|तभी लाइन में लगी एक गर्भवती औरत गश खाकर गिरी उसे जोर का लेबरपेन हो रहा था| आसपास की औरतो ने उसे संभाला उसने वही बच्चे को जन्म दिया | थोड़ी देर में उस औरत के घर वाले आ गये थे|रज्जो यह सब देखकर और घबरा गयी| मगर वो अपना काम नहीं कर पायी...रुपये बदलने की उसकी चाहत मन में ही धरी रह गयी| उसने सोचा कि गाँव का कोई देख लेगा तब भी हमारी पोल खुल जायेगी| इतनी भीड़ न होती तो शायद चुपचाप कोशिश कर लेती|
बैंक से वापस घर आयी और रुमाल से सारे नोट निकाले उन्हें गिना फिर उन्हें माथे से लगाकर गुलाबी पल्लू वाली साडी की परत में उसी तरह छिपा दिए| अक्सर हारने के बाद हिम्मत आ जाती है| अब रज्जो के पास कोई विकल्प नहीं था| दूसरे दिन रज्जो ने हिम्मत करके अपनी भाभी से सब सच्चाई बता दी|
‘अरे दीदी,कमल कि बीमारी में भी तुमने....मदत नहीं की..ये मलाल तो हमको जिन्दगी भर रहेगा|..ये तो कहो कि वो माता की कृपा से ठीक हो गया|’
‘भौजी..गलती तो बहुत बड़ी है..लेकिन अब हमारी इज्जत तुम्हारे हाथ में है|..दूसरोँ से जादा हमे भैया औ कमल कि चिंता है|..उनकी नजरो में हमें न गिराना हाथ जोड़ के बस यही बिनती है| तुम जो चाहो हमको सजा दे दो|’ इसके बाद रज्जो अपना मुह पीटने लगी|
‘अरे रुको दीदी,..अब बस करो ..हम मान भी जाए तो ये कैसे होगा दीदी! या तो इज्जत जायेगी या फिर पैसा हाथ से..’
‘....काहे भौजी?
‘अरे हम अपना पैसा बताएँगे तो तुम्हारे भैया नोट बदल के अपने धंधे में लगा लेंगे| बदलने जाओगी तब राज खुल जाएगा | नहीं बताएँगे तो ये नोट कूड़ा हो जायेंगें..|’
‘तो अब क्या किया जाए ?.. तुम्ही बताओ ?’
‘दीदी! अगर पैसा औ इज्जत दोनों बचाना है तो एक रास्ता है..अगर आप तैयार हो..मगर ..उसमे खर्चा है |’
‘बताओ..कोई तो रास्ता बताओ ?..’
‘अरे अपने गाँव का मंगलुआ,दस के आठ दे रहा है..आठ हजार चाहिए तो बताओ. ?’
‘ठीक है भौजी!..,नासपीटे को दो हजार दे देंगे|यही सही रहेगा..दो हजार का नुक्सान होगा ..मगर बात छिपी रहेगी ... इज्जत बची रहेगी |...ये लो चाभी बक्सा खोलो |’
भौजी चकित होकर रज्जो को देखती रही फिर चाभी लेकर उस बक्से की ओर बढ़ी जिसका रहस्य जानने की उत्सुकता उसके मन में तीन साल से बनी हुई थी| वह बक्सा खोलने के लिए उसने लपक कर चाभी पकड़ ली थी |रज्जो ने कहा-‘गुलाबी साड़ी के पल्लू में देखो दस नोट मिलेंगे|’
नोट गिनते हुए भौजी ने कहा-‘ हाँ दीदी! पूरे दस हैं...ये साड़ी भी बहुत सुंदर है दीदी!..लेकिन..’
‘लेकिन अब हमारे काम कि नहीं रही ..गुलाबी रंग वाले चार नोट मंगलुआ से ले आना ..बस ध्यान रखना ये बात हमारे तुम्हारे बीच रहे|..साड़ी तुम्हारा इनाम है ..रख लो| हमने एक ही दफा पहनी है ..’
रज्जो ने गुलाबी रूमाल से अपनी भरी हुई आँखे पोछ लीं|
संपर्क:
सी-45/वाई -4,दिलशाद गार्डन ,दिल्ली-110095
09868031384
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चंदावती :धारावाहिक (उपन्यास ) ---किश्त-एक-
#भारतेंदु मिश्र
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दादा की तेरहवीं
पूरे तेरह ब्राह्मण पधार चुके थे। उनके लिए अलग चौका लगवाया गया था, नई तेरह धोती अंगौछा, जनेऊ, थालियां ,लोटे, नये पाटे, तेरह तुलसीकृत रामायण के गुटके और तेरह शंख बाजार से मंगवाए गए थे।आस-पास के क्षेत्रों से चुने हुए तेरह ब्राम्हणों को निमंत्रित किया गया था ।उनकी शक्ल तो देखते बन रही थी गोरे सुंदर चुटिया धारी पंडित चंदन टीका लगाए इस प्रकार सजे संवरे लग रहे थे कि मानो अभी सीधे सीधे स्वर्ग से ही उतर कर आए हैं ।गांव के भकुआ लोग उनको आंखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे। छोटकऊ महाराज ने पीतल के थाल में उन सभी लोगों के चरण पखारे शिव प्रसाद व चंदावती ने नये अंगौछे से सबके पैर पोछे। मोलहे ने उनको देखकर सकटू से कहा भाई – ‘देखो तो ये कितने सुघड़ पंडित आये हैं।वाह,मन करता है इनको देखते ही रहें’ ‘ हाँ मोहले भाई, भाग्य अच्छा था हनुमान दादा का यह सब सुघड़ पंडित उनके लिए स्वर्ग की सीढ़ी बनाएंगे।‘ ‘ठीक कहते हो भाई, उनको स्वर्ग अवश्य मिलेगा , देवता थे हनुमान दादा, यह सब उनके कर्मों का ही प्रताप है - बहुत बड़े आदमी थे वो। अब ब्राम्हणों के टोले में कोई उतना प्रतिष्ठित आदमी नहीं रह गया है ।‘ हम तो यह भी कहते हैं कि दो-चार-दस गांवो में उनके जैसा आदमी खोजने पर नहीं मिलेगा। हवन का धुआँ चारों तरफ फैल गया था। पूर्णाहुति होने के बाद शंख -घंटे बजने लगे। लिपे-पुते आंगन में तेरहों ब्राह्मणों की चौकियां सजा दी गई थी। सभी देवता नवग्रह ,कुत्ता, कौआ, गाय और पंचतत्वों का भोग लगा दिया गया था। अब सभी ब्राह्मण खाने लगे थे। वाह चन्दावती दाई इतना अच्छा प्रबंध, इतना बढ़िया भोजन बहुत वर्षो बाद मिला है। हनुमान दादा की आत्मा तो तुम्हें स्वर्ग से निरख रही होगी, और तुम्हे बहुत आशीष दे रही होंगी।--- -ब्राम्हणों के मुखिया ने कहा। चन्दावती की आंखें भर आयी। अपने आंचल में मुंह छुपा लिया। अब वहां पर उपस्थित सभी स्त्री-पुरुष तरह-तरह की बातें बनाने में लगेथे । रामफल दादा दूर बरामदे में बैठे थे। वो भी मौक़ा देखकर शुरू हो गए थे और गांव के लोग उनकी बतकही सुनने लगे-- पं. रामदीन शुक्ल और हनुमान दादा तो दौलतपुर की नाक थे। उनका बड़ा पौरुष था। दस पाँच कोस तक के गांव - क्षेत्र में उनका रुतबा था। दौलतपुर के सबसे बड़े किसान थे। गांव में बस उनके घर के दरवाजे पर ही ट्रैक्टर खड़ा है।‘ दौलतपुर में लगभग पचास घर थे जिनमे -तेली , कहार , धोबी , पासी , चमार , मुराऊ ,ठाकुर , मुसलमान , सभी जातियों के घर थे। गांव में ब्राम्हणों के कुल जमा तीन घर थे। किसी ने पूछा कितनी आयु थी हनुमान दादा की? रामफल ने फिर बताना चालू किया – ‘अभी तो मुश्किल से पैंसठ की उम्र हुई होगी , हमसे तो पाँच साल छोटे रहे , बस उनका समय पूरा हो चुका था, सो चल बसे। नामी पहलवान थे हनुमान भाई। अपनी जवानी में जब वो कुश्ती लड़ने जाते थे तो हमेशा विजेता बनकर लौटते थे। दौलतपुर की असली दौलत तो हनुमान भाई ही थे। जैसे-जैसे उनका पुरुषार्थ घटता गया वैसे-वैसे उनको गठिया,बाई परेशान करने लगी थी । बहुत दिनों से बिचारे दरवाजे वाले अखाड़े पर भी नही जा पाते थे , इस बात का उन्हें बहुत अफसोस था। बेचारे तैतीस वर्ष की उम्र में ही विधुर हो गए थे। फिर दो वर्ष बाद उन्हें चन्दावती से प्यार हो गया, साहसी थे वो , नीच जाति की होने पर भी उन्होंने चन्दावती से शादी की और फिर पत्नी का स्थान दिया और इसी प्रकार चन्दावती हर पल उनके साथ रही।यद्यपि चन्दावती उनकी जाति बिरादरी की नहीं थी, उनकी अपनी बिरादरी में बहुत बदनामी भी हुई लेकिन जब उनको प्यार हो गया था तो उन्होंने अपने जीते जी हर प्रकार से निभाया । कहाँ बीस-बिसुआ के कनौजिया पंडित और कहा चन्दावती जाति की तेलिन। उस समय चन्दावती का गौना भी नहीं हुआ था ,जब उसके पति के मौत की खबर आयी थी। चन्दावती वास्तव में चंदा ही थी। उसकी उम्र बीस से अधिक नहीं थी उस समय। जो कोई भी उसको एक बार देख लेता वो देखता ही रह जाता। गांव की रामलीला में वो सीता बनती थी। वो ज़माना ऐसा था जब ब्राम्हणो , ठाकुरों की नजर नीच जाति की बहू बेटी पर पड़ जाती तो वो जब चाहे तब उसे अपनी हवस का शिकार बना लेते थे। उस समय गरीबो के घर की स्त्रियों की कोई इज्जत नही थी , क्योकि दबंगो के उपर कोई कानून नही लागू था। चन्दावती के घर वाले चन्दावती के प्रेम से अत्यधिक प्रसन्न हुए थे। ‘देखो दादा, सौ-सौ रूपये दक्षिणा में दिए जा रहे हैं’- मोलहे ने बीच में इशारा किया। ‘रामफल ने समझाया - ये तेरहवी वाले ब्राम्हण हैं इनको दूर से ही प्रणाम करना ।उनकी नजरों से बचकर ही रहना चाहिए'सकटू पूछने लगे - क्यों दादा ?''तुम तो यार यकदम बौडम हो .., यहाँ आये हो तेरही खाने , सवालो की बौछार कर रहे हो. ''सकटू भइया तुम जरा तम्बाकू तो बनाओ - लो चुनौटी पकड़ो । अब तम्बाकू ? ...अरे अब भोजन के बाद ही तम्बाकू खाना ।‘ 'अरे तम्बाकू की महिमा तुम्हे नहीं मालूम है, तो सुनो— .
कृष्ण चले बैकुंठ को , राधा पकड़ी बांह
यहाँ तमाखू खायलो, वहाँ तमाखू नाहि
कुछ समझ मे आया , अभी बहुत समय है तब तक तमाखू बन सकती है जब तक खानदान के मान्य लोग नही खायेंगे तब तक हमारा नम्बर कैसे आयेगा ‘ ठीक कहते हो दादा l’ कहते तो हम हमेशा ही ठीक है, पर तुम सुनते तो हो नही बस मोबाइल कान में चिपकाये रहते हो , बहरे तो हो ही जाओगे ,बनाओ ...तमाखू बनाओ l तेरहो ब्राम्हण दक्षिणा लेकर चलने लगे| महाब्राम्हण के पैर छूकर चन्दावती ने उसको पाँच सौ रुपये अलग से दक्षिणा में दिए l प्रसन्नता से उसकी आंखों में चमक आ गई और उसने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर आशीर्वाद दिया फिर उसके बाद अन्य तेरहो ब्राह्मणों ने भी उसी प्रकार आशीर्वाद दिए l छोटकऊ महाराज चांदी की तश्तरी में तंबाकू, पान, इलायची, लौंग लेकर आए और आगे बढ़कर सबको देकर प्रणाम करके विदा किया | दो तांगे उन सबको ले जाने के लिये पहले से तैयार खड़े थे। उन दोनों साईसों ने भी भोजन कर लिया था। उनको किराया दिया जा चुका था और घर ले जाने के लिए परुसा भी बांध दिया गया था। जब सारे ब्राह्मण तांगे पर बैठ गए महाबाभन के इशारे पर तांगे हाँक दिए गए। हनुमान दादा की तेरहवी के समय पर आये दोनों घोड़ों की भी खूब दाना - पानी -मेवा आदि से सेवा की गयी थी । वह भी खा - पीकर खूब मस्त हो गए थे। अब तो कार वाला जमाना आ गया है, परंतु ये महाबाभनों के घोड़े तो अभी तक सौ साल पुरानी परंपरा को निभा रहे है। सकटू ने पूछा , दादा! ये ससुरे महाबाभन कार , जीप में न बैठकर ताँगे में क्यों चलते है। अरे ससुरे ढकोसला बनाए है, और तो कुछ नहीं हैl इनको कोई सुख के समय नहीं बुलाता है| अब जाने भी दो यह लोग जितनी जल्दी टले वही अच्छा l महाबाँभनो की विदाई के बाद मान्य लोगों के पैर धोए गए और फिर उनको भी पाटा पर बिठाया गयाl भोजन के पत्तल में सबसे पहले कद्दू की सब्जी परोसी गई जिसमें से पुदीने की सुगंध फैल रही थीl सोठवाले आलू की भुजिया , छुहारे वाला गलका , उड़द की दाल भरी कचौड़ी -पूड़ी और इन सबके साथ किशमिश चिरौजी वाली खीर , ये सारे व्यंजन भली - भाँति पुरानी रीति के हिसाब से ही बनाये गए थे। गांव के रिवाज के हिसाब से महाबाभनों के बाद घर के मान्यो को खिलाया जाता था, इसीलिए उनके लिए पत्तले सजा दी गई थीl रामफल, सकटू , मोहले के साथ बैठे थे। गांव व् आस -पास के क्षेत्र के तमाम लोग भोजन के इंतज़ार में तख्तो पर विराजमान थे। रामफल ने चंदावती की प्रेम कहानी फिर से शुरू कर दी थी। भोजन के इंतज़ार में बैठे हुए लोगो को इस सामयिक गाथा में बड़ा आनंद आने लगा था। रामफल की आयु सत्तर वर्ष से काम नहीं रही होगी , उन्होंने अपनी आंखों से सब कुछ देखा सुना था l पुराने सरपंच थे, किसी से डरते दबते नहीं थे l गांव में उनका सम्मान था l सकटू ने तमाखू बनायीऔर रामफल की तरफ बढ़ा दी- ‘लो दादा’ रामफल ने एक मोटी चुटकी रामफल के हाथ से भर ली और उसको गदेली पर रखकर अंगूठे से घिसा | तीन बार फटकार कर झाड़ कर फिर बाएं हाथ से ओठ खोलकर दाएं हाथ की छुटकी से ओठ के नीचे रख ली- अर्थात अब पूरी गाथा सुनाने के लिए उनको पूरी खुराक मिल गई थी l फिर सकटू के मोबाइल की घंटी बजने लगी l वो अपना फोन लेकर अखाड़े की तरफ चले गये l इनका प्रेम कैसे हुआ था दादा? मोलहे ने पूछा- किसको किससे कब मोहब्बत हो जाए इसका तो कुछ पता नहीं, यह तो दिल लगे का सौदा है। क्या पता कहाँ किस समय कौन मन को भा जाए , अच्छा लगने का कोई एक कारण नहीं होता बौड़मदास! कहां बीस बिसुआ के कनौजिया हनुमान महाराज और कहां तेलिन की विधवा बेटी चंदो- मोहब्बत हो गई l.. रावण और सीता के प्रेम की चर्चा बहुत दिनों तक होती रही l ‘यह सब किस प्रकार से हुआ l गांव में तो हम इनके तरह - तरह के किस्से सुनते रहे है – लेकिन आपने तो सबकुछ अपनी आँखों से देखा होगा l...’ ‘क्यों नहीं हमीं ने तो फैसला किया था l’ ‘किस बात का फैसला?’ अरे कई महीनों तक तो चोरी छिपे ये मोहब्बत चलती रही l जब ब्राम्हणों के मोहल्ले में खुसर - फुसुर बहुत होने लगी तो एक दिन छोटकऊ महाराज हमारे पास आए और कहने लगे - दादा अब तो आप ही कुछ कीजिए क्योंकि अब पानी सिर के ऊपर निकल गया है l हमने पूछा – ‘क्या हुआ?’ आप से क्या छुपा है सरपंच दादा,.... उस समय भी मैं ही सरपंच था| छोटकऊ बोले—‘ दद्दू उस तेलिनया चंदावती पर फिदा हो गए हैं l जाति- बिरादरी में सब मान- मर्यादा मिट चुकी है l अब तो घर और खेत के बँटवारे का समय आ गया है l अब आप ही हमको बचा सकते है दादा ------ हम पंचायत बुलाना चाहते हैl’ छोटकऊ! आखिर तुम चाहते क्या हो यह तो बताओ’ ‘ हम चाहते हैं कि हमारे परिवार पर उनकी इस निगोड़ी मुहब्बत का बेजा असर न पड़े। खेती न बटे, दद्दु के आगे पीछे तो कोई है नहीं l कहीं उस तेलिनिया के चक्कर में हमारा घर -खेत सब कुछ न बंट जाए l ठीक कहते हो भैया! , कोशिश किया जाए कि ऐसी नौबत न आवे l फिर क्या हुआ? फिर हमने ही फैसला किया कि हनुमान और चंद्रावती ब्याह करके इसी घर में रहें l चंद्रावती के घरवाले चाहते थे कि हनुमान और चंद्रावती अलग उनके मोहल्ले में रहे l ब्राम्हणों के मोहल्ले के कुछ बदतमीज़ लोग भी यही चाहते थे कि इन लोगों का आपस में बटवारा हो तो उनकी ताकत कुछ कम हो जाएl हमने यह सब हाल देख सुनकर समय के अनुसार सही सही फैसला किया कि हनुमान दादा और चंदावती व्याह करके इसी घर में एक ही साथ रहेंगे ,बस अपनी रसोई अलग कर लेंगे l छोटकऊ या उनके बेटे या पत्नी को किसी प्रकार का ऐतराज नहीं होना चाहिए , यदि कोई एतराज होगा तो घर का बटवारा होगा और जब घर का बटवारा होगा तो फिर खेती का भी बंटवारा हो सकता है l हांलाकि उनके पिताजी ने पहले से ही खेती दोनों भाइयों के नाम करा दी थी जिससे कि दोनों मे लड़ाई - झगड़ा न हो l हनुमान और छोटकऊ दोनों ने उस समय इस फैसले को स्वीकार कर लिया था । ब्राम्हणटोला के बहुत लोग इनसे नाराज थे ख़ास कर इस शादी के कारण। क्षेत्र के ब्राम्हणों में आज भी इनके खानदान का कोई सम्मान नहीं रह गया है। इनके पास अच्छा ख़ासा पैसा है,रुतबा है लेकिन इस घटना के बाद बीस बिसुआ वाले ब्राम्हणों के यहाँ से इनकी रिश्तेदारी नहीं हो पायी। अब तो बात बहुत पुरानी हो गयी है । तभी सकटू ने संकेत किया की देखो मान्य लोग भोजन कर चुके है। इसी समय छोटकऊ महाराज ने रामफल दादा के पास आकर कहा दादा , चलिए आप भी भोजन कर लीजिये !, ‘चलो सकटू भाई तुम भी चलो।‘ ‘चलो भाई, चलो भूख तो बड़ी जोर की लगी है। सकटू , मोलहे ,रामफल ,शंकर , गनी मियां सब भोजन करने के लिए आगे बढ़ गए ।भोजन बहुत ही स्वादिष्ट बना था इसलिए सब लोगों ने भरपेट अच्छे मन से खाया। खाने के बाद पान सुपारी का प्रबंध किया गया था।
गांव में ठाकुर रामफल का सभी लोग सम्मान करते थे । चौसठ - भोला छाप तम्बाकू वाला पान खाकर जब ठाकुर साहब चलने लगे तब छोटकऊ ने कहा – प्रधान दादा , अब दद्दू तो चले गए,उनके साथ ही इस तेलिनिया का सम्बन्ध ख़त्म हो गया। किसी ज़माने में आपने ही यह ब्याह करवाया था , अब जब दद्दू नहीं रहे तो इस तेलिन को हम अपने घर में कैसे रहने दे सकते है ? 'भाई जो तुम्हारी समझ में आये वही करो लेकिन अब जमाना बहुत बदल गया है। इस ज़माने में औरतो , लड़कियों की बातो को थाने में बड़े ध्यान से सुना जाता है। बहन जी का शासन है कही लेने के देने न पड जाय| नेता , ऑफिसर सब नीची जाति के है। कही जेल की हवा न खानी पड़ जाय।''अब जो होगा वो देख लेंगे। पहले तो दादा की शर्म थी, अब जब वही नहीं है तो इस ससुरी को घर में कौन रखेगा। अब तेरहवी के साथ - साथ सारे कार्य निपट गए। बस कल इस तेलिन को घर से भगाएंगे तभी घर पवित्र होगा बाकि तुम लोगो का सहयोग तो मिलेगा ही.... ? ‘भईया ! हम सहयोग का वादा तो नहीं कर पाएंगे। पहले अपने मोहल्ले में आस पड़ोस में सबकी राय- सलाह कर लीजिए। हम तो लखनऊ जा रहे हैं। चार दिन डी एम साहब के साथ एक सम्मलेन में रहना है। हम इस काम में तुम्हारे साथ नहीं है। '‘क्यों दादा ?’ ‘भाई! बात यह है कि हमने ही तो यह फैसला किया था कि चन्दावती हनुमान भईया के साथ उसी घर में रहेंगी। अब जब हनुमान भाई नहीं रहे तो किस मुँह से हम यह बात कहे की चन्दावती को घर से निकाल दिया जाए। गांव की औरते आदमी सब उसके साथ खड़े हो जायेंगे। सबके साथ उसका व्यवहार बहुत अच्छा है। पहले खुद भली - भाँति सोच - विचार लो फिर जो समझ में आये जैसा मन हो करना। अब हम जा रहे है। कल सबेरे हमें लखनऊ जाना है। 'ठीक है दादा राम - राम ‘ रामफल चले गए। धीरे - धीरे खास रिश्तेदार के अलावा सब अपने - अपने घर चले गए। फतेहपुर वाले जीजा , कानपूर वाले मामा , सकटू और मोलहे वही छप्पर के नीचे कोटपीस (ताश)खेलने लगे। नाती - पोते बहुएँ बेटियो से सारा घर भर गया था। आसपास के सब लोग चले गए थे लेकिन तब भी घर में चहल - पहल थी। चन्दावती रिश्तेदारो से दूर ही रहती थी , क्योकि सब लोगो को जाति बिरादरी के मामले में चन्दावती की जाति के अलावा उसका रूप - गुण व सद्व्यवहार आदि कुछ भी नजर नहीं आता था।सब उसके व्यवहार को नीच जाति के हिसाब से ही जांचते परखते थे| अब तो चन्दावती ने अपने अकेलेपन के कारण दुःख से निढ़ाल होकर चारपाई पकड़ ली थी। अपने समय की सुंदरी चन्दावती ने अपने बाल कटवा डाले थे; उसकी कलाइयां सूनी हो गई थी, उसकी मांग का सिंदूर उजड़ गया था। उसके माथे पर चमचम चमकती बिंदी गायब हो गई थी। हालांकि उसके सूने माथे पर बिंदी की जगह साफ़ अब भी झलक रही थी। आखिर इस घर में उसका था ही कौन? अब तो उस घर में चन्दावती का हाल पूछने वाला कोई भी नहीं था। चन्दावती अब अपने भाई - भाभी के साथ भी नहीं रहना चाहती थी। लेकिन उसका और कहीं ठिकाना भी नहीं था। हनुमान दादा जब से बीमार हुए थे तब से चन्दावती सबके व्यंगबाण सुनते-सुनते पक गई थी। जब तक हनुमान दादा जिंदा रहे तब तक चन्दावती के मुंह पर कोई भी किसी भी प्रकार की गलत - सलत बात कहने का साहस नहीं करता था। हालांकि घरवालों ने उसका नाम चन्दो चाची रख दिया था। पहले तो बड़े लोग दबी जुबान से उसे चन्दो - चन्दो कहते थे पर अब तो घर के छोटे- छोटे बच्चे तक उसे चन्दो कहने लगे थे। परंतु चन्दावती अपने दुख में ये सब अपमान की बातें भूल गई थी । जब एक माह पहले हनुमान दादा को मियादी बुखार चढ़ गया था तब से उनके अंतिम समय तक चन्दावती ने एक पैर पर खड़े होकर उनकी सेवा की थी। बैंक में जो तीस हजार रूपया जमा था वह सब उनकी बीमारी में उड़ गया था। जब दस - बारह दिनो तक उनका बुखार नहीं उतरा तो गांव के डॉक्टर ने उन्हें लखनऊ ले जाने की सलाह दी। चंद्रावती ने अपने गले की जंजीर व कानों के झुमके बेचकर उनका इलाज करवाया। लखनऊ के पी.जी.आई. हॉस्पिटल का खर्च बहुत अधिक था। बुखार तो हनुमान दादा के दिमाग में चढ़ गया था। अंत में वहां के डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया। अब जब वो बेसहारा हो गयी तब उसको अपनी ज़िंदगी बोझ लगने लगी। छोटकऊ तो इन तीस सालो से चन्दावती से अपनी दुश्मनी निभाते चले आ रहे थे। वो तो मन ही मन में हनुमान दादा के मरने का इंतज़ार ही कर रहे थे।जब तक हनुमान दादा सुनने समझने लायक थे,तब तक दिखावटी लल्लो चप्पो करते रहे| जैसे - जैसे उनकी तबियत बिगड़ती गयी , वैसे - वैसे छोटकऊ महाराज उनसे दूर होते गये। चन्दावती के पास अब कुछ भी नहीं बचा था। ब्राम्हणों -टोले वालो के अलावा दूसरी बिरादरी के लोग उसका बहुत सम्मान करते थे। क्योकि दूसरी बिरादरी के लोग उसे शुक्लाइन समझ कर पैलगी(प्रणाम) करते थे। परंतु ब्राम्हणों ने उसका नाम चन्दो चाण्डालिन रख दिया था। उसकी जाति के ही कारण कुछ लोग इस प्रकार उसकी बेइज्जती करते थे। पर दूसरी (पिछड़ी ) जाति के लोग तो उसको शुक्लाइन ही कहते थे। और प्रणाम भी करते थे। गाँवो में नाम बिगाड़ने की परंपरा चलती है।उसी में दूषित मानसिकता वाले लोगो को आनंद आता है। एक बार हनुमान दादा ने बताया था कि नाम बिगाड़ने की परंपरा तो महाभारत के समय से चली आ रही है। कौरव दुर्योधन को दुर्योधन कहते थे परंतु पांडवों ने उसका नाम सुयोधन रखा था। क्योंकि पांडव उसको सुयोधन कहकर पुकारते थे और चिढ़ाते थे। कहते थे - जब हम चाहे तुम्हें जीत लेंगे क्योंकि सुयोधन का मतलब है जिसको बड़ी आसानी से जीता जा सके। दौलतपुर में इस तरह से उल्टा-पुल्टा नाम रखने वाले बहुत लोग थे जिनके पास बस इसी तरह के काम थे। पहले के दिनों में गरमियो में नीम की छाँव तले और जाडों में अलाव के पास बैठकर इसी तरह की बाते होती रहती थी, परंतु अब टेलीविजन आ जाने के बाद से इस तरह की बैठकी में कुछ कमी जरूर आ गयी है।
शाम होते-होते ज्यादातर रिश्तेदार चले गये। अब सड़कें बन गई हैं तो आने जाने के साधन हर समय उपलब्ध रहते हैं| लेकिन छोटकऊ को तो चैन भी न पड़ी। हनुमान दादा का कमरा और बरामदा तो पहले से ही अलग था। बस थोड़ी सी झपकी ही आयी थी कि छोटकऊ बरामदे में लेटी हुई चन्दावती के पास पहुँच गए और कहने लगे- ‘तेलिन भौजी ! बहुत दिन हमारे घर में सो चुकी हो , अब जो तुमको इस घर में लाये थे वो तो चल गए। अब तुम अपने रास्ते जाओ।‘ चन्दावती को इस बात का अंदेशा तो पहले से ही था पर यह सब इतनी जल्दी होगा ऐसी आशा बिलकुल न थी। चन्दावती उठ कर बैठ गई चारपाई के नीचे रखे हुए लोटे में से दो घूंट पानी पिया, फिर पूछा – ‘क्या बात है छोटकऊ?.अब तो तुम्हारे दद्दू के साथ इसी घर में रहते हुए तीस साल हो गये है , अब क्या हो गया ? तीस साल पुराना फैसला तुम्हारे मिटाने से मिट जायगा ?... अभी सरपंच रामफल दादा मरे नहीं है उन्होंने ही हमारी शादी करवायी थी। घर में रहने का फैसला भी उन्होंने ही किया था।‘ 'अब जब दादा नहीं रहे तब वो शादी ..वो फैसला सब अपने आप खत्म हो गया। '‘तुम कौन होते हो भैया - फैसला ख़तम करने वाले। गाँव में पञ्च है प्रधान है वही लोग फैसला करेंगे।‘ ‘फैसला जब तक होगा तब तक शिवप्रसाद तुम्हारी क्या गति बना देगा , इसका अंदाज तो तुमको बिलकुल भी नहीं है। हम तो तुम्हारा भला चाहते है इसीलिए समझ रहे है। शिवप्रसाद तो अभी ..तत्काल तुमको घर से बाहर करने की ज़िद्द पर अड़ा है। तुम यदि अपनी इज्जत बचाना चाहती हो तो कल सबेरे इस घर में दिखाई न देना। रात में दरवाजा बंद करके ही सोना। हमारा फर्ज था सो तुम्हे समझा दिया है। बाकी जो तुम्हारी समझ में आये वो करो। छोटकऊ चले गए। चन्दावती की आँखों से नींद उड़न छू हो गयी थी। वह डर गयी थी। झटपट बरामदे से उठकर कमरे के अंदर चली गई। इस समय तो उसे स्वयं सहारे की आवश्यकता थी। जिसके सहारे उसने अपना पूरा जीवन व्यतीत कर दिया था, वही इस वृद्ध अवस्था में धोखा देकर भगवान के पास चला गया था। अब तो चन्दावती का जीवन एक कटी पतंग की भांति हो गया था। जब तक हनुमान दादा जीवित थे, तब तक उनके फैसले के सामने किसी प्रकार टीका टिप्पणी करने की छोटकऊ की कभी हिम्मत नहीं पडी थी। हमेशा सिर झुकाकर ठीक है दादा कहने वाले छोटकऊ के विनीत स्वभाव की चन्दावती की आदत हो गई थी। तीस वर्ष पहले जब चन्दावती इस घर में आई थी तब हनुमान दादा ने समझाया था कि पति पत्नी के बीच में कोई तीसरा न आने पाए तो जीवन रूपी गाड़ी भली प्रकार आगे बढ़ती जाती है। अब एक - एक बात चन्दावती की आँखों के सामने चलचित्र की भाँति चमकने लगी। एक बार हनुमान दादा ने चन्दावती को बताया था कि भगवान राम और सीता माता के बीच बड़ी गहरी समझदारी थी। तुलसीदास जी ने कहा है –
जल को गए लक्खन है लरिका ,परिखौ पिय छांह घरीक हुइ ठाढ़े।
पोछि पसेऊ बयारि करौ , अरु पाय पखारिहौ भूभुरि डाढे।
तुलसी रघुवीर प्रिया स्रम जानिकै , बैठि बिलम्ब लौ कंटक काढ़े
जानकी नाह को नेह लख्यो , पुलकयो तनु वारि विलोचन बाढ़े।
अर्थात जब राम जी वन को चलने लगे तो सीता जी ने कहा कि - स्वामी हम भी चलेंगे। तब श्री राम ने उन्हें बहुत समझाया की वन के ऊबड़ - खाबड़ मार्ग में तुम नहीं चल पाओगी परंतु तब भी वे मानी नहीं। रास्ते में जब सीता जी थक जाती थी तब राम को पता चल जाता था की इस समय सीता थकी हुई है। सबसे विशेष बात तो यह थी की राम ने सीता से कभी यह नहीं कहा की तुमने हठ क्यों की थी?राम ने कभी उन्हें चिढ़ाया नहीं कि अब लो मौज करो। बस राम तो सीता के मन की बात समझ जाते और चुपचाप किसी वृक्ष की छाया में बैठकर सुस्ताने लगते थे। इस कविता में सीता कहती है - प्रिय , घडी भर किसी वृक्ष की छाया में खड़े हो कर प्रतीक्षा कर लीजिये , क्योकि लक्ष्मण अभी छोटे है और वो पानी लेने गए है। जब तक वो आते है तब तक लाओ तुम्हारा पसीना पोछ दूँ। और अंगौछे से तुम्हे हवा कर दूँ| गलियारे की गरम - गरम धूल में तो तुम्हारे पैर जल गए होंगे पानी आ जाये तो आपके पाँव धो दूँ। ऐसी बाते सुनकर राम अपनी प्राणप्रिया सीता के मन की बात समझ गए कि वास्तव में सीता स्वयं ही थक गयी है ,तब राम ने तो उनसे कुछ नहीं कहा बस चुपचाप अपने पाँव के काँटे निकालने लगे. राम जब पाँव के कंटक निकालने के बहाने बैठ गए और देर तक काँटा निकालने के बहाने बैठे रहे। तो सीता भी उनके मन कि बात समझ गयी। वो समझ गयी की उनके प्रियतम उनके प्रेम के वशीभूत हो रहे है , उन्हें विश्राम कराने के लिए देर लगा रहे है|और बिना किसी प्रकार की बातचीत के वो चुपचाप बैठे है। यह सोचकर हर्षातिरेक से सीता के शरीर में सुरसुरी सी दौड गयी , पूरा शरीर रोमांचित हो गया था। इस प्रसंग के स्मरण होने से चन्दावती की आंखें फिर डबडबा गई, और आँखों से आंसुओ की धार बहने लगी। वह आगे सोचने लगी कि - अभी उनको मरे कुल तेरह दिन ही बीते है और छोटकऊ ने अपना असली रंग दिखा ही दिया। मानो वो इसी दिन का इंतज़ार कर रहे थे। सीता हो या मीरा इस संसार में प्रत्येक स्त्री को परिक्षा देनी ही पड़ती है| जिसका पति नहीं रहता उसका कोई सम्मान नहीं होता। औरत तो आदमी की छाया मानी जाती है|आदमी ख़तम तो औरत जीते जी अपने आप ख़त्म हो जाती है। विधवा का जीवन तो अपराधिनी की भाति ही कटता है। देखो अब मेरे भाग्य में क्या लिखा है। लेकिन छोटकऊ जो अपनी मनमानी करने पर उतारू है और शिवप्रसाद को हमें घर से निकलने के लिए तैयार किया है , इस समस्या से किसप्रकार निपटा जा सकता है। इसी बात का सोच - विचार करते - करते चारपाई पर पड़े - पड़े चन्दावती को झपकी लग गयी और वह सो गयी। रात के घने अन्धकार की कालिमा चारो ओऱ फैल गयी थी।
#भारतेंदु मिश्र

दादा की तेरहवीं
पूरे तेरह ब्राह्मण पधार चुके थे। उनके लिए अलग चौका लगवाया गया था, नई तेरह धोती अंगौछा, जनेऊ, थालियां ,लोटे, नये पाटे, तेरह तुलसीकृत रामायण के गुटके और तेरह शंख बाजार से मंगवाए गए थे।आस-पास के क्षेत्रों से चुने हुए तेरह ब्राम्हणों को निमंत्रित किया गया था ।उनकी शक्ल तो देखते बन रही थी गोरे सुंदर चुटिया धारी पंडित चंदन टीका लगाए इस प्रकार सजे संवरे लग रहे थे कि मानो अभी सीधे सीधे स्वर्ग से ही उतर कर आए हैं ।गांव के भकुआ लोग उनको आंखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे। छोटकऊ महाराज ने पीतल के थाल में उन सभी लोगों के चरण पखारे शिव प्रसाद व चंदावती ने नये अंगौछे से सबके पैर पोछे। मोलहे ने उनको देखकर सकटू से कहा भाई – ‘देखो तो ये कितने सुघड़ पंडित आये हैं।वाह,मन करता है इनको देखते ही रहें’ ‘ हाँ मोहले भाई, भाग्य अच्छा था हनुमान दादा का यह सब सुघड़ पंडित उनके लिए स्वर्ग की सीढ़ी बनाएंगे।‘ ‘ठीक कहते हो भाई, उनको स्वर्ग अवश्य मिलेगा , देवता थे हनुमान दादा, यह सब उनके कर्मों का ही प्रताप है - बहुत बड़े आदमी थे वो। अब ब्राम्हणों के टोले में कोई उतना प्रतिष्ठित आदमी नहीं रह गया है ।‘ हम तो यह भी कहते हैं कि दो-चार-दस गांवो में उनके जैसा आदमी खोजने पर नहीं मिलेगा। हवन का धुआँ चारों तरफ फैल गया था। पूर्णाहुति होने के बाद शंख -घंटे बजने लगे। लिपे-पुते आंगन में तेरहों ब्राह्मणों की चौकियां सजा दी गई थी। सभी देवता नवग्रह ,कुत्ता, कौआ, गाय और पंचतत्वों का भोग लगा दिया गया था। अब सभी ब्राह्मण खाने लगे थे। वाह चन्दावती दाई इतना अच्छा प्रबंध, इतना बढ़िया भोजन बहुत वर्षो बाद मिला है। हनुमान दादा की आत्मा तो तुम्हें स्वर्ग से निरख रही होगी, और तुम्हे बहुत आशीष दे रही होंगी।--- -ब्राम्हणों के मुखिया ने कहा। चन्दावती की आंखें भर आयी। अपने आंचल में मुंह छुपा लिया। अब वहां पर उपस्थित सभी स्त्री-पुरुष तरह-तरह की बातें बनाने में लगेथे । रामफल दादा दूर बरामदे में बैठे थे। वो भी मौक़ा देखकर शुरू हो गए थे और गांव के लोग उनकी बतकही सुनने लगे-- पं. रामदीन शुक्ल और हनुमान दादा तो दौलतपुर की नाक थे। उनका बड़ा पौरुष था। दस पाँच कोस तक के गांव - क्षेत्र में उनका रुतबा था। दौलतपुर के सबसे बड़े किसान थे। गांव में बस उनके घर के दरवाजे पर ही ट्रैक्टर खड़ा है।‘ दौलतपुर में लगभग पचास घर थे जिनमे -तेली , कहार , धोबी , पासी , चमार , मुराऊ ,ठाकुर , मुसलमान , सभी जातियों के घर थे। गांव में ब्राम्हणों के कुल जमा तीन घर थे। किसी ने पूछा कितनी आयु थी हनुमान दादा की? रामफल ने फिर बताना चालू किया – ‘अभी तो मुश्किल से पैंसठ की उम्र हुई होगी , हमसे तो पाँच साल छोटे रहे , बस उनका समय पूरा हो चुका था, सो चल बसे। नामी पहलवान थे हनुमान भाई। अपनी जवानी में जब वो कुश्ती लड़ने जाते थे तो हमेशा विजेता बनकर लौटते थे। दौलतपुर की असली दौलत तो हनुमान भाई ही थे। जैसे-जैसे उनका पुरुषार्थ घटता गया वैसे-वैसे उनको गठिया,बाई परेशान करने लगी थी । बहुत दिनों से बिचारे दरवाजे वाले अखाड़े पर भी नही जा पाते थे , इस बात का उन्हें बहुत अफसोस था। बेचारे तैतीस वर्ष की उम्र में ही विधुर हो गए थे। फिर दो वर्ष बाद उन्हें चन्दावती से प्यार हो गया, साहसी थे वो , नीच जाति की होने पर भी उन्होंने चन्दावती से शादी की और फिर पत्नी का स्थान दिया और इसी प्रकार चन्दावती हर पल उनके साथ रही।यद्यपि चन्दावती उनकी जाति बिरादरी की नहीं थी, उनकी अपनी बिरादरी में बहुत बदनामी भी हुई लेकिन जब उनको प्यार हो गया था तो उन्होंने अपने जीते जी हर प्रकार से निभाया । कहाँ बीस-बिसुआ के कनौजिया पंडित और कहा चन्दावती जाति की तेलिन। उस समय चन्दावती का गौना भी नहीं हुआ था ,जब उसके पति के मौत की खबर आयी थी। चन्दावती वास्तव में चंदा ही थी। उसकी उम्र बीस से अधिक नहीं थी उस समय। जो कोई भी उसको एक बार देख लेता वो देखता ही रह जाता। गांव की रामलीला में वो सीता बनती थी। वो ज़माना ऐसा था जब ब्राम्हणो , ठाकुरों की नजर नीच जाति की बहू बेटी पर पड़ जाती तो वो जब चाहे तब उसे अपनी हवस का शिकार बना लेते थे। उस समय गरीबो के घर की स्त्रियों की कोई इज्जत नही थी , क्योकि दबंगो के उपर कोई कानून नही लागू था। चन्दावती के घर वाले चन्दावती के प्रेम से अत्यधिक प्रसन्न हुए थे। ‘देखो दादा, सौ-सौ रूपये दक्षिणा में दिए जा रहे हैं’- मोलहे ने बीच में इशारा किया। ‘रामफल ने समझाया - ये तेरहवी वाले ब्राम्हण हैं इनको दूर से ही प्रणाम करना ।उनकी नजरों से बचकर ही रहना चाहिए'सकटू पूछने लगे - क्यों दादा ?''तुम तो यार यकदम बौडम हो .., यहाँ आये हो तेरही खाने , सवालो की बौछार कर रहे हो. ''सकटू भइया तुम जरा तम्बाकू तो बनाओ - लो चुनौटी पकड़ो । अब तम्बाकू ? ...अरे अब भोजन के बाद ही तम्बाकू खाना ।‘ 'अरे तम्बाकू की महिमा तुम्हे नहीं मालूम है, तो सुनो— .
कृष्ण चले बैकुंठ को , राधा पकड़ी बांह
यहाँ तमाखू खायलो, वहाँ तमाखू नाहि
कुछ समझ मे आया , अभी बहुत समय है तब तक तमाखू बन सकती है जब तक खानदान के मान्य लोग नही खायेंगे तब तक हमारा नम्बर कैसे आयेगा ‘ ठीक कहते हो दादा l’ कहते तो हम हमेशा ही ठीक है, पर तुम सुनते तो हो नही बस मोबाइल कान में चिपकाये रहते हो , बहरे तो हो ही जाओगे ,बनाओ ...तमाखू बनाओ l तेरहो ब्राम्हण दक्षिणा लेकर चलने लगे| महाब्राम्हण के पैर छूकर चन्दावती ने उसको पाँच सौ रुपये अलग से दक्षिणा में दिए l प्रसन्नता से उसकी आंखों में चमक आ गई और उसने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर आशीर्वाद दिया फिर उसके बाद अन्य तेरहो ब्राह्मणों ने भी उसी प्रकार आशीर्वाद दिए l छोटकऊ महाराज चांदी की तश्तरी में तंबाकू, पान, इलायची, लौंग लेकर आए और आगे बढ़कर सबको देकर प्रणाम करके विदा किया | दो तांगे उन सबको ले जाने के लिये पहले से तैयार खड़े थे। उन दोनों साईसों ने भी भोजन कर लिया था। उनको किराया दिया जा चुका था और घर ले जाने के लिए परुसा भी बांध दिया गया था। जब सारे ब्राह्मण तांगे पर बैठ गए महाबाभन के इशारे पर तांगे हाँक दिए गए। हनुमान दादा की तेरहवी के समय पर आये दोनों घोड़ों की भी खूब दाना - पानी -मेवा आदि से सेवा की गयी थी । वह भी खा - पीकर खूब मस्त हो गए थे। अब तो कार वाला जमाना आ गया है, परंतु ये महाबाभनों के घोड़े तो अभी तक सौ साल पुरानी परंपरा को निभा रहे है। सकटू ने पूछा , दादा! ये ससुरे महाबाभन कार , जीप में न बैठकर ताँगे में क्यों चलते है। अरे ससुरे ढकोसला बनाए है, और तो कुछ नहीं हैl इनको कोई सुख के समय नहीं बुलाता है| अब जाने भी दो यह लोग जितनी जल्दी टले वही अच्छा l महाबाँभनो की विदाई के बाद मान्य लोगों के पैर धोए गए और फिर उनको भी पाटा पर बिठाया गयाl भोजन के पत्तल में सबसे पहले कद्दू की सब्जी परोसी गई जिसमें से पुदीने की सुगंध फैल रही थीl सोठवाले आलू की भुजिया , छुहारे वाला गलका , उड़द की दाल भरी कचौड़ी -पूड़ी और इन सबके साथ किशमिश चिरौजी वाली खीर , ये सारे व्यंजन भली - भाँति पुरानी रीति के हिसाब से ही बनाये गए थे। गांव के रिवाज के हिसाब से महाबाभनों के बाद घर के मान्यो को खिलाया जाता था, इसीलिए उनके लिए पत्तले सजा दी गई थीl रामफल, सकटू , मोहले के साथ बैठे थे। गांव व् आस -पास के क्षेत्र के तमाम लोग भोजन के इंतज़ार में तख्तो पर विराजमान थे। रामफल ने चंदावती की प्रेम कहानी फिर से शुरू कर दी थी। भोजन के इंतज़ार में बैठे हुए लोगो को इस सामयिक गाथा में बड़ा आनंद आने लगा था। रामफल की आयु सत्तर वर्ष से काम नहीं रही होगी , उन्होंने अपनी आंखों से सब कुछ देखा सुना था l पुराने सरपंच थे, किसी से डरते दबते नहीं थे l गांव में उनका सम्मान था l सकटू ने तमाखू बनायीऔर रामफल की तरफ बढ़ा दी- ‘लो दादा’ रामफल ने एक मोटी चुटकी रामफल के हाथ से भर ली और उसको गदेली पर रखकर अंगूठे से घिसा | तीन बार फटकार कर झाड़ कर फिर बाएं हाथ से ओठ खोलकर दाएं हाथ की छुटकी से ओठ के नीचे रख ली- अर्थात अब पूरी गाथा सुनाने के लिए उनको पूरी खुराक मिल गई थी l फिर सकटू के मोबाइल की घंटी बजने लगी l वो अपना फोन लेकर अखाड़े की तरफ चले गये l इनका प्रेम कैसे हुआ था दादा? मोलहे ने पूछा- किसको किससे कब मोहब्बत हो जाए इसका तो कुछ पता नहीं, यह तो दिल लगे का सौदा है। क्या पता कहाँ किस समय कौन मन को भा जाए , अच्छा लगने का कोई एक कारण नहीं होता बौड़मदास! कहां बीस बिसुआ के कनौजिया हनुमान महाराज और कहां तेलिन की विधवा बेटी चंदो- मोहब्बत हो गई l.. रावण और सीता के प्रेम की चर्चा बहुत दिनों तक होती रही l ‘यह सब किस प्रकार से हुआ l गांव में तो हम इनके तरह - तरह के किस्से सुनते रहे है – लेकिन आपने तो सबकुछ अपनी आँखों से देखा होगा l...’ ‘क्यों नहीं हमीं ने तो फैसला किया था l’ ‘किस बात का फैसला?’ अरे कई महीनों तक तो चोरी छिपे ये मोहब्बत चलती रही l जब ब्राम्हणों के मोहल्ले में खुसर - फुसुर बहुत होने लगी तो एक दिन छोटकऊ महाराज हमारे पास आए और कहने लगे - दादा अब तो आप ही कुछ कीजिए क्योंकि अब पानी सिर के ऊपर निकल गया है l हमने पूछा – ‘क्या हुआ?’ आप से क्या छुपा है सरपंच दादा,.... उस समय भी मैं ही सरपंच था| छोटकऊ बोले—‘ दद्दू उस तेलिनया चंदावती पर फिदा हो गए हैं l जाति- बिरादरी में सब मान- मर्यादा मिट चुकी है l अब तो घर और खेत के बँटवारे का समय आ गया है l अब आप ही हमको बचा सकते है दादा ------ हम पंचायत बुलाना चाहते हैl’ छोटकऊ! आखिर तुम चाहते क्या हो यह तो बताओ’ ‘ हम चाहते हैं कि हमारे परिवार पर उनकी इस निगोड़ी मुहब्बत का बेजा असर न पड़े। खेती न बटे, दद्दु के आगे पीछे तो कोई है नहीं l कहीं उस तेलिनिया के चक्कर में हमारा घर -खेत सब कुछ न बंट जाए l ठीक कहते हो भैया! , कोशिश किया जाए कि ऐसी नौबत न आवे l फिर क्या हुआ? फिर हमने ही फैसला किया कि हनुमान और चंद्रावती ब्याह करके इसी घर में रहें l चंद्रावती के घरवाले चाहते थे कि हनुमान और चंद्रावती अलग उनके मोहल्ले में रहे l ब्राम्हणों के मोहल्ले के कुछ बदतमीज़ लोग भी यही चाहते थे कि इन लोगों का आपस में बटवारा हो तो उनकी ताकत कुछ कम हो जाएl हमने यह सब हाल देख सुनकर समय के अनुसार सही सही फैसला किया कि हनुमान दादा और चंदावती व्याह करके इसी घर में एक ही साथ रहेंगे ,बस अपनी रसोई अलग कर लेंगे l छोटकऊ या उनके बेटे या पत्नी को किसी प्रकार का ऐतराज नहीं होना चाहिए , यदि कोई एतराज होगा तो घर का बटवारा होगा और जब घर का बटवारा होगा तो फिर खेती का भी बंटवारा हो सकता है l हांलाकि उनके पिताजी ने पहले से ही खेती दोनों भाइयों के नाम करा दी थी जिससे कि दोनों मे लड़ाई - झगड़ा न हो l हनुमान और छोटकऊ दोनों ने उस समय इस फैसले को स्वीकार कर लिया था । ब्राम्हणटोला के बहुत लोग इनसे नाराज थे ख़ास कर इस शादी के कारण। क्षेत्र के ब्राम्हणों में आज भी इनके खानदान का कोई सम्मान नहीं रह गया है। इनके पास अच्छा ख़ासा पैसा है,रुतबा है लेकिन इस घटना के बाद बीस बिसुआ वाले ब्राम्हणों के यहाँ से इनकी रिश्तेदारी नहीं हो पायी। अब तो बात बहुत पुरानी हो गयी है । तभी सकटू ने संकेत किया की देखो मान्य लोग भोजन कर चुके है। इसी समय छोटकऊ महाराज ने रामफल दादा के पास आकर कहा दादा , चलिए आप भी भोजन कर लीजिये !, ‘चलो सकटू भाई तुम भी चलो।‘ ‘चलो भाई, चलो भूख तो बड़ी जोर की लगी है। सकटू , मोलहे ,रामफल ,शंकर , गनी मियां सब भोजन करने के लिए आगे बढ़ गए ।भोजन बहुत ही स्वादिष्ट बना था इसलिए सब लोगों ने भरपेट अच्छे मन से खाया। खाने के बाद पान सुपारी का प्रबंध किया गया था।
गांव में ठाकुर रामफल का सभी लोग सम्मान करते थे । चौसठ - भोला छाप तम्बाकू वाला पान खाकर जब ठाकुर साहब चलने लगे तब छोटकऊ ने कहा – प्रधान दादा , अब दद्दू तो चले गए,उनके साथ ही इस तेलिनिया का सम्बन्ध ख़त्म हो गया। किसी ज़माने में आपने ही यह ब्याह करवाया था , अब जब दद्दू नहीं रहे तो इस तेलिन को हम अपने घर में कैसे रहने दे सकते है ? 'भाई जो तुम्हारी समझ में आये वही करो लेकिन अब जमाना बहुत बदल गया है। इस ज़माने में औरतो , लड़कियों की बातो को थाने में बड़े ध्यान से सुना जाता है। बहन जी का शासन है कही लेने के देने न पड जाय| नेता , ऑफिसर सब नीची जाति के है। कही जेल की हवा न खानी पड़ जाय।''अब जो होगा वो देख लेंगे। पहले तो दादा की शर्म थी, अब जब वही नहीं है तो इस ससुरी को घर में कौन रखेगा। अब तेरहवी के साथ - साथ सारे कार्य निपट गए। बस कल इस तेलिन को घर से भगाएंगे तभी घर पवित्र होगा बाकि तुम लोगो का सहयोग तो मिलेगा ही.... ? ‘भईया ! हम सहयोग का वादा तो नहीं कर पाएंगे। पहले अपने मोहल्ले में आस पड़ोस में सबकी राय- सलाह कर लीजिए। हम तो लखनऊ जा रहे हैं। चार दिन डी एम साहब के साथ एक सम्मलेन में रहना है। हम इस काम में तुम्हारे साथ नहीं है। '‘क्यों दादा ?’ ‘भाई! बात यह है कि हमने ही तो यह फैसला किया था कि चन्दावती हनुमान भईया के साथ उसी घर में रहेंगी। अब जब हनुमान भाई नहीं रहे तो किस मुँह से हम यह बात कहे की चन्दावती को घर से निकाल दिया जाए। गांव की औरते आदमी सब उसके साथ खड़े हो जायेंगे। सबके साथ उसका व्यवहार बहुत अच्छा है। पहले खुद भली - भाँति सोच - विचार लो फिर जो समझ में आये जैसा मन हो करना। अब हम जा रहे है। कल सबेरे हमें लखनऊ जाना है। 'ठीक है दादा राम - राम ‘ रामफल चले गए। धीरे - धीरे खास रिश्तेदार के अलावा सब अपने - अपने घर चले गए। फतेहपुर वाले जीजा , कानपूर वाले मामा , सकटू और मोलहे वही छप्पर के नीचे कोटपीस (ताश)खेलने लगे। नाती - पोते बहुएँ बेटियो से सारा घर भर गया था। आसपास के सब लोग चले गए थे लेकिन तब भी घर में चहल - पहल थी। चन्दावती रिश्तेदारो से दूर ही रहती थी , क्योकि सब लोगो को जाति बिरादरी के मामले में चन्दावती की जाति के अलावा उसका रूप - गुण व सद्व्यवहार आदि कुछ भी नजर नहीं आता था।सब उसके व्यवहार को नीच जाति के हिसाब से ही जांचते परखते थे| अब तो चन्दावती ने अपने अकेलेपन के कारण दुःख से निढ़ाल होकर चारपाई पकड़ ली थी। अपने समय की सुंदरी चन्दावती ने अपने बाल कटवा डाले थे; उसकी कलाइयां सूनी हो गई थी, उसकी मांग का सिंदूर उजड़ गया था। उसके माथे पर चमचम चमकती बिंदी गायब हो गई थी। हालांकि उसके सूने माथे पर बिंदी की जगह साफ़ अब भी झलक रही थी। आखिर इस घर में उसका था ही कौन? अब तो उस घर में चन्दावती का हाल पूछने वाला कोई भी नहीं था। चन्दावती अब अपने भाई - भाभी के साथ भी नहीं रहना चाहती थी। लेकिन उसका और कहीं ठिकाना भी नहीं था। हनुमान दादा जब से बीमार हुए थे तब से चन्दावती सबके व्यंगबाण सुनते-सुनते पक गई थी। जब तक हनुमान दादा जिंदा रहे तब तक चन्दावती के मुंह पर कोई भी किसी भी प्रकार की गलत - सलत बात कहने का साहस नहीं करता था। हालांकि घरवालों ने उसका नाम चन्दो चाची रख दिया था। पहले तो बड़े लोग दबी जुबान से उसे चन्दो - चन्दो कहते थे पर अब तो घर के छोटे- छोटे बच्चे तक उसे चन्दो कहने लगे थे। परंतु चन्दावती अपने दुख में ये सब अपमान की बातें भूल गई थी । जब एक माह पहले हनुमान दादा को मियादी बुखार चढ़ गया था तब से उनके अंतिम समय तक चन्दावती ने एक पैर पर खड़े होकर उनकी सेवा की थी। बैंक में जो तीस हजार रूपया जमा था वह सब उनकी बीमारी में उड़ गया था। जब दस - बारह दिनो तक उनका बुखार नहीं उतरा तो गांव के डॉक्टर ने उन्हें लखनऊ ले जाने की सलाह दी। चंद्रावती ने अपने गले की जंजीर व कानों के झुमके बेचकर उनका इलाज करवाया। लखनऊ के पी.जी.आई. हॉस्पिटल का खर्च बहुत अधिक था। बुखार तो हनुमान दादा के दिमाग में चढ़ गया था। अंत में वहां के डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया। अब जब वो बेसहारा हो गयी तब उसको अपनी ज़िंदगी बोझ लगने लगी। छोटकऊ तो इन तीस सालो से चन्दावती से अपनी दुश्मनी निभाते चले आ रहे थे। वो तो मन ही मन में हनुमान दादा के मरने का इंतज़ार ही कर रहे थे।जब तक हनुमान दादा सुनने समझने लायक थे,तब तक दिखावटी लल्लो चप्पो करते रहे| जैसे - जैसे उनकी तबियत बिगड़ती गयी , वैसे - वैसे छोटकऊ महाराज उनसे दूर होते गये। चन्दावती के पास अब कुछ भी नहीं बचा था। ब्राम्हणों -टोले वालो के अलावा दूसरी बिरादरी के लोग उसका बहुत सम्मान करते थे। क्योकि दूसरी बिरादरी के लोग उसे शुक्लाइन समझ कर पैलगी(प्रणाम) करते थे। परंतु ब्राम्हणों ने उसका नाम चन्दो चाण्डालिन रख दिया था। उसकी जाति के ही कारण कुछ लोग इस प्रकार उसकी बेइज्जती करते थे। पर दूसरी (पिछड़ी ) जाति के लोग तो उसको शुक्लाइन ही कहते थे। और प्रणाम भी करते थे। गाँवो में नाम बिगाड़ने की परंपरा चलती है।उसी में दूषित मानसिकता वाले लोगो को आनंद आता है। एक बार हनुमान दादा ने बताया था कि नाम बिगाड़ने की परंपरा तो महाभारत के समय से चली आ रही है। कौरव दुर्योधन को दुर्योधन कहते थे परंतु पांडवों ने उसका नाम सुयोधन रखा था। क्योंकि पांडव उसको सुयोधन कहकर पुकारते थे और चिढ़ाते थे। कहते थे - जब हम चाहे तुम्हें जीत लेंगे क्योंकि सुयोधन का मतलब है जिसको बड़ी आसानी से जीता जा सके। दौलतपुर में इस तरह से उल्टा-पुल्टा नाम रखने वाले बहुत लोग थे जिनके पास बस इसी तरह के काम थे। पहले के दिनों में गरमियो में नीम की छाँव तले और जाडों में अलाव के पास बैठकर इसी तरह की बाते होती रहती थी, परंतु अब टेलीविजन आ जाने के बाद से इस तरह की बैठकी में कुछ कमी जरूर आ गयी है।
शाम होते-होते ज्यादातर रिश्तेदार चले गये। अब सड़कें बन गई हैं तो आने जाने के साधन हर समय उपलब्ध रहते हैं| लेकिन छोटकऊ को तो चैन भी न पड़ी। हनुमान दादा का कमरा और बरामदा तो पहले से ही अलग था। बस थोड़ी सी झपकी ही आयी थी कि छोटकऊ बरामदे में लेटी हुई चन्दावती के पास पहुँच गए और कहने लगे- ‘तेलिन भौजी ! बहुत दिन हमारे घर में सो चुकी हो , अब जो तुमको इस घर में लाये थे वो तो चल गए। अब तुम अपने रास्ते जाओ।‘ चन्दावती को इस बात का अंदेशा तो पहले से ही था पर यह सब इतनी जल्दी होगा ऐसी आशा बिलकुल न थी। चन्दावती उठ कर बैठ गई चारपाई के नीचे रखे हुए लोटे में से दो घूंट पानी पिया, फिर पूछा – ‘क्या बात है छोटकऊ?.अब तो तुम्हारे दद्दू के साथ इसी घर में रहते हुए तीस साल हो गये है , अब क्या हो गया ? तीस साल पुराना फैसला तुम्हारे मिटाने से मिट जायगा ?... अभी सरपंच रामफल दादा मरे नहीं है उन्होंने ही हमारी शादी करवायी थी। घर में रहने का फैसला भी उन्होंने ही किया था।‘ 'अब जब दादा नहीं रहे तब वो शादी ..वो फैसला सब अपने आप खत्म हो गया। '‘तुम कौन होते हो भैया - फैसला ख़तम करने वाले। गाँव में पञ्च है प्रधान है वही लोग फैसला करेंगे।‘ ‘फैसला जब तक होगा तब तक शिवप्रसाद तुम्हारी क्या गति बना देगा , इसका अंदाज तो तुमको बिलकुल भी नहीं है। हम तो तुम्हारा भला चाहते है इसीलिए समझ रहे है। शिवप्रसाद तो अभी ..तत्काल तुमको घर से बाहर करने की ज़िद्द पर अड़ा है। तुम यदि अपनी इज्जत बचाना चाहती हो तो कल सबेरे इस घर में दिखाई न देना। रात में दरवाजा बंद करके ही सोना। हमारा फर्ज था सो तुम्हे समझा दिया है। बाकी जो तुम्हारी समझ में आये वो करो। छोटकऊ चले गए। चन्दावती की आँखों से नींद उड़न छू हो गयी थी। वह डर गयी थी। झटपट बरामदे से उठकर कमरे के अंदर चली गई। इस समय तो उसे स्वयं सहारे की आवश्यकता थी। जिसके सहारे उसने अपना पूरा जीवन व्यतीत कर दिया था, वही इस वृद्ध अवस्था में धोखा देकर भगवान के पास चला गया था। अब तो चन्दावती का जीवन एक कटी पतंग की भांति हो गया था। जब तक हनुमान दादा जीवित थे, तब तक उनके फैसले के सामने किसी प्रकार टीका टिप्पणी करने की छोटकऊ की कभी हिम्मत नहीं पडी थी। हमेशा सिर झुकाकर ठीक है दादा कहने वाले छोटकऊ के विनीत स्वभाव की चन्दावती की आदत हो गई थी। तीस वर्ष पहले जब चन्दावती इस घर में आई थी तब हनुमान दादा ने समझाया था कि पति पत्नी के बीच में कोई तीसरा न आने पाए तो जीवन रूपी गाड़ी भली प्रकार आगे बढ़ती जाती है। अब एक - एक बात चन्दावती की आँखों के सामने चलचित्र की भाँति चमकने लगी। एक बार हनुमान दादा ने चन्दावती को बताया था कि भगवान राम और सीता माता के बीच बड़ी गहरी समझदारी थी। तुलसीदास जी ने कहा है –
जल को गए लक्खन है लरिका ,परिखौ पिय छांह घरीक हुइ ठाढ़े।
पोछि पसेऊ बयारि करौ , अरु पाय पखारिहौ भूभुरि डाढे।
तुलसी रघुवीर प्रिया स्रम जानिकै , बैठि बिलम्ब लौ कंटक काढ़े
जानकी नाह को नेह लख्यो , पुलकयो तनु वारि विलोचन बाढ़े।
अर्थात जब राम जी वन को चलने लगे तो सीता जी ने कहा कि - स्वामी हम भी चलेंगे। तब श्री राम ने उन्हें बहुत समझाया की वन के ऊबड़ - खाबड़ मार्ग में तुम नहीं चल पाओगी परंतु तब भी वे मानी नहीं। रास्ते में जब सीता जी थक जाती थी तब राम को पता चल जाता था की इस समय सीता थकी हुई है। सबसे विशेष बात तो यह थी की राम ने सीता से कभी यह नहीं कहा की तुमने हठ क्यों की थी?राम ने कभी उन्हें चिढ़ाया नहीं कि अब लो मौज करो। बस राम तो सीता के मन की बात समझ जाते और चुपचाप किसी वृक्ष की छाया में बैठकर सुस्ताने लगते थे। इस कविता में सीता कहती है - प्रिय , घडी भर किसी वृक्ष की छाया में खड़े हो कर प्रतीक्षा कर लीजिये , क्योकि लक्ष्मण अभी छोटे है और वो पानी लेने गए है। जब तक वो आते है तब तक लाओ तुम्हारा पसीना पोछ दूँ। और अंगौछे से तुम्हे हवा कर दूँ| गलियारे की गरम - गरम धूल में तो तुम्हारे पैर जल गए होंगे पानी आ जाये तो आपके पाँव धो दूँ। ऐसी बाते सुनकर राम अपनी प्राणप्रिया सीता के मन की बात समझ गए कि वास्तव में सीता स्वयं ही थक गयी है ,तब राम ने तो उनसे कुछ नहीं कहा बस चुपचाप अपने पाँव के काँटे निकालने लगे. राम जब पाँव के कंटक निकालने के बहाने बैठ गए और देर तक काँटा निकालने के बहाने बैठे रहे। तो सीता भी उनके मन कि बात समझ गयी। वो समझ गयी की उनके प्रियतम उनके प्रेम के वशीभूत हो रहे है , उन्हें विश्राम कराने के लिए देर लगा रहे है|और बिना किसी प्रकार की बातचीत के वो चुपचाप बैठे है। यह सोचकर हर्षातिरेक से सीता के शरीर में सुरसुरी सी दौड गयी , पूरा शरीर रोमांचित हो गया था। इस प्रसंग के स्मरण होने से चन्दावती की आंखें फिर डबडबा गई, और आँखों से आंसुओ की धार बहने लगी। वह आगे सोचने लगी कि - अभी उनको मरे कुल तेरह दिन ही बीते है और छोटकऊ ने अपना असली रंग दिखा ही दिया। मानो वो इसी दिन का इंतज़ार कर रहे थे। सीता हो या मीरा इस संसार में प्रत्येक स्त्री को परिक्षा देनी ही पड़ती है| जिसका पति नहीं रहता उसका कोई सम्मान नहीं होता। औरत तो आदमी की छाया मानी जाती है|आदमी ख़तम तो औरत जीते जी अपने आप ख़त्म हो जाती है। विधवा का जीवन तो अपराधिनी की भाति ही कटता है। देखो अब मेरे भाग्य में क्या लिखा है। लेकिन छोटकऊ जो अपनी मनमानी करने पर उतारू है और शिवप्रसाद को हमें घर से निकलने के लिए तैयार किया है , इस समस्या से किसप्रकार निपटा जा सकता है। इसी बात का सोच - विचार करते - करते चारपाई पर पड़े - पड़े चन्दावती को झपकी लग गयी और वह सो गयी। रात के घने अन्धकार की कालिमा चारो ओऱ फैल गयी थी।
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भारतीय कला एवं राष्ट्रीयता
(व्याख्यान/दिनांक -16/6/2017)
#भारतेंदु मिश्र :
कला चेतना का संबंध हमारी सभ्यता के उद्गम से ही जुडा हुआ है| इसमें स्त्री और पुरुष की सामान रूप से भागीदारी की कल्पना की गयी है| कलाएं हमारी संस्कृति का अंग हैं-जिसमें आदिदेव महादेव की कल्पना की गयी है वह कश्मीर से कन्याकुमारी तक और पूरब से सुदूर पश्चिमी तट तक फ़ैली हुई है|ये शिवालय,जो कि हर एक गाँव –कस्बा या कि शहर में पाए जाते हैं ये हमारी भारतीय कलाओं की चेतना का मूल प्रतीक चिन्ह है|इन शिवालयो में वास्तु है, मूर्ति है, चित्र है,संगीत और नृत्य है|ये शिवालय ही शिव आराधन की परंपरा में हमारी कलाओं के आदि केंद्र के रूप में विक्सित हुए| कालिदास की चेतना में शिव और पार्वती-‘वागार्थ इव संपृक्तौ’ –अर्थात वाणी और अर्थ के सामान जुड़े हुए हैं| वही तो अर्धनारीश्वर हैं जिनकी कल्पना दुनिया की किसी अन्य सभ्यता में शायद ही की गयी हो | यहाँ स्त्री और पुरुष मिलकर सामान भागीदारी से नई मनुष्यता का ही सृजन नहीं करते बल्कि अपने जीवन निर्वाह के साथ ही नवोन्मेषशालिनी कलाओं का भी सृजन करते है|जब शिव तांडव करते है तब पार्वती लास्य करती हैं|-
नृत्यावसाने नटराज राजा ननाद ढक्कां नवपंचाबारं
उद्धर्तुकामा सनाकादिसिद्धे:एतद्विमर्शे शिवसूत्र जालम|
अर्थात जब शिव का तांडव नृत्य हुआ तो शिव के डमरू का स्वर ब्रम्हांड के चौदहों भुवनो में व्याप्त हुआ और उसी परिवर्तन के क्षण में 14 माहेश्वर सूत्र निकले जिन्हें लेकर पाणिनि ने ‘अष्टाध्यायी’ जैसे व्याकरण के ग्रन्थ की रचना की,जो कालान्तर में व्याकरण भाषा और काव्य नाट्य आदि कलाओं का उद्गम बने| इसी प्रकार जब देवी पार्वती का लास्य हुआ तो सरगम निकले जिससे संगीत और नृत्य जैसी कलाओं की चेतना विकसित हुई|ऐसा हमारे पारंपरिक चिंतको का मानना है| परा वैदिक युग में कलाओं और कलाकारों को पूर्ण स्वतंत्रता थी ,कालान्तर में बौद्ध दर्शन के प्रभाव स्वरूप मूर्तिकला,वास्तुकला और चित्र कला –स्वास्तिक,शंख,मंगल कलश आदि के रूप में जहां विक्सित हुई, वहीं संगीत,नृत्य,नाटक आदि का ह्रास हुआ|संगीत ,नृत्य, नाटक आदि का विकास विक्रमादित्य और कालिदास के समय से पुन: आरम्भ हुआ|भारतीय कला चेतना वस्तुत: प्रकृति रूपा है|सूर्य निकलता है तो उसकी रश्मियों से इन्द्रधनुष निर्मित हो जाता है|आदिम काल से ऐसा ही होता आ रहा है|उस इन्द्रधनुष की लय-लोच और रंगों के अनुपात का संयोजन प्रकृति ही करती है|पुरुष और प्रकृति दो ही तो मूल तत्व हैं-इस धरती के|वे ही तो आदि कारण है –इस सृष्टि के| समुद्र का अनहद राग,पर्वतो से फिसलकर निकलने वाली नदियों की कलकल ध्वनि ,स्त्री पुरुषो के नाना रूपाकार उनके विविध आचार व्यवहार आदि सब मूलत: प्रकृति का ही पर्याय है|यह सब
समानांतर सृजन सूक्षम पुरुष और मूल प्रकृति के आनंद का हेतु है| वह आनंद ही भारतीय कला चेतना का उत्स है| वही जो सत्य के रूप में प्रतिष्ठित है ,वही जो शिव है -वही जो सुन्दर है| हम सबका जीवन सौन्दर्य की यात्रा भर है|इस जीवन यात्रा में कौन किस पद्धति से जाता है ,किस माध्यम को चुनता है,कितना समय लगाता है,किस दिशा में जाता है, यह कलाओ के रूपाकारो और कलाकारों की रुचियों पर निर्भर करता है| कला का उद्देश्य ही आनंद प्रदान करना है-‘कम लाति या सा कला’ कला शब्द की निरुक्ति से हमे अर्थ प्राप्त होता है कि-‘जो आनंद प्रदान करे वही कला है’| आनंद या आत्मिक सुख का ही एक स्वरूप है किन्तु कला चेतना के आधार पर सहृदयो ने काव्यकला के आनंद को काव्यानंद कहा और संगीत और नृत्य के आनंद को नादानंद कहा| तुलनात्मक सौन्दर्य दर्शन की बात करें तो कला समीक्षकों ने – संगीत और नृत्य के लिए -नाद ब्रम्ह,काव्य और अभिनय के लिए-रस ब्रम्ह ,स्थापत्य वास्तु आदि के लिए -वास्तु ब्रम्ह जैसी कल्पना की है|अर्थात विभिन्न कलाओं के प्रयोजन को ब्रम्हानंद से जोड़ा गया है|यह अनिर्वचनीय आनंद ही हम कलाओं से गृहण करते हैं|ये कलाए ही हमारे जीवन की अभिरुचियो को संस्कारित भी करती है| ये रस तो ब्रम्हानंद सहोदर है| अग्निपुराण में कहा गया-‘रसो वै स:’ अर्थात वो रस ही ब्रम्ह है|इसीलिए हमारी प्राचीन शिक्षा को इस आनंद के मार्ग से जोड़ा गया है|कलाए मनुष्य को संस्कारित करती है|कुछ तो ललित कलाए है जैसे –अभिनय,काव्य,संगीत,नृत्य,वास्
विश्रान्तिर्यस्या संभोगे सा कला न कला मता
लीयते परमानंदे ययात्मा सा परा कला|
कालिदास अपने नाटक मालविकाग्निमित्रम (1/4 ) में नाटक को चाक्षुषक्रतु कहते हैं|
नाटक प्रेक्षकवर्ग को आह्लादित करनेवाला मनोरम अनुसंधान है| यह जातिभेद ,वर्गभेद, वयोभेद,लिंगभेद आदि नैसर्गिक एवं सामाजिक विभेदों से निरपेक्ष, भिन्न रुचि की जनता का सामान्य रूप से समाराधन करनेवाला एक कांत, 'चाक्षुषक्रतु' है।क्योकि नाटक समस्त कलाओं के समावेश और समायोजन से ही खेला जाता है|इसी लिए ‘नाट्यशास्त्र’ को समस्त कलाओं का कोश और पंचम वेद कहा गया है|सभी कलाओं में रस की चेतना ही आनंद का मूल है|
जहां तक हमारी राष्ट्रीयता का प्रश्न है तो हमारे वैदिक ऋषियों ने हमे केवल भारत के भूभाग ही नहीं वरन पूरे विश्व की नागरिकता दी है| पृथ्वी सूक्त का ऋषि कहता है-‘माता भूमि: पुत्रोडहम पृथिव्या:’ अर्थात ये समस्त धरती हमारी है और हम इसके पुत्र हैं| स्वतंत्रता के बाद देश का भूगोल बदला है,इतिहास नहीं,आजादी के बाद से राष्ट्रीयता का प्रश्न जोर शोर से उठाया जाने लगा| बाद में हमारी राष्ट्रीयता का निर्धारण –भूभाग ,जनता और संस्कृति से किया जाने लगा | इस देश विभाजन के बावजूद हमारी सनातन संस्कृति अविच्छिन्न रही| भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रखने वाले जो 6 प्रमुख कारक हैं वे क्रमश:-धर्म,दर्शन,इतिहास,कला, ज्योतिष और साहित्य हैं| धर्म का अर्थ-सनातन धर्म जिसमे किसी पंथ की बात नहीं की गयी --धृति;क्षमा दमो अस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं |
दर्शन का अर्थ-आस्तिक और नास्तिक भारतीय दर्शन परंपरा जिसमे-चार्वाक,जैन,बौद्ध,को नास्तिक माना गया जबकि-योग,सांख्य,न्याय,वैशेषिक, वेदान्त आदि को आस्तिक दर्शन माना गया|वेदान्त और सांख्य दर्शन की ही एक विकसित परंपरा में कश्मीर के दार्शनिको ने कश्मीर शैव दर्शन की परंपरा को विक्सित किया जिसे दसवी शताब्दी में आचार्य अभिनवगुप्तपाद ने भारतीय सौन्दर्य चेतना और स्वतन्त्रकालाशास्त्र के रूप में विक्सित किया| गत वर्ष ही हमने आचार्य अभिनवगुप्त की जन्म सहस्राब्दी भी मनायी है| किसी समूह या समाज की दार्शनिक पृष्ठ भूमि कोई भी हो मतभेदों के बावजूद हम सह अस्तित्व में ही विश्वास करते हैं|
इतिहास का अर्थ है-रामायण,महाभारत,पुराण आदि|
ज्योतिष का अर्थ है-गणित,मौसम विज्ञान,पंचांग आदि|
साहित्य में –कालिदास आदि से लेकर आज तक जो कुछ उल्लेखनीय लिखा पढ़ा गया|
अत: जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो हमें संस्कृति के इन सभी आयामों पर विचार करना होता है|अर्थात हमारी कलाए हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं| आज भी ये कलाकार ही संपूर्ण जातीयता के साथ हमारी राष्ट्रीयता में शामिल हैं और ये कलाए ही हमारी राष्ट्रीय चेतना का मुख भी हैं|वो संगीत के क्षेत्र में मोहिउद्दीन डागर,बड़े गुलाम अली खा,भीमसेन जोशी,हरिप्रसाद चौरसिया,गिरिजादेवी,भूपेन हजारिका, लतामंगेशकर जी या लोक गायन में तीजनबाई और आदरणीया मालिनी जी ही क्यों न हो-सभी कलाकार मानवीय सुख की व्याख्या करते आये हैं| चित्रकला और पेंटिंग के क्षेत्र में देखते हैं तो टैगोर बंधुओ के अलावा अमृता शेरगिल,राजा रविवर्मा,जतिन दास,शुभा मुद्गल जैसे अनेक नाम उल्लेखनीय है|वास्तु के क्षेत्र में बात करें तो हम ताजमहल की सुन्दरता को अपनी राष्ट्रीय चेतना से जोड़े बिना कैसे रह सकते हैं|दक्षिण के मंदिरों का वास्तु हमारी राष्ट्रीय चेतना का ही प्रतीक है|आज हम जिस दिल्ली में बैठे हैं उसमें हर्बर्ट बेकर जैसे वास्तुकार की भावना निर्माण कला को कैसे भूल सकते है जिसने संसद भवन,राष्ट्रपति भवन जैसे भवन हमारे लिए निर्मित किये|मूर्तिकला के क्षेत्र मे अजन्ता एलोरा की गुफाओं की कृतियों से लेकर खजुराहो आदि की मूर्तियों के सौन्दर्य और उनके राष्ट्रीय महत्त्व को कैसे विस्मृत कर सकते हैं| कर्नाटक के जनकाचार्य जैसे अमर शिल्पी की कथा आज दक्षिण में किंवदंती के रूप में प्रचलित है|इसी सन्दर्भ में रामकिंकर वैज ,देवीप्रसाद राय चौधरी, शंखो चौधरी,धनराज भगत,मीरा मुखर्जी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं| उड़ीसा के सुदर्शन पटनायक जिन्होंने समुद्र की रेत को अपना माध्यम बनाया|उनकी राष्ट्रीय चेतना पर प्रश्नचिन्ह कौन लगा सकता है| इसी प्रकार नृत्य के क्षेत्र में मल्लिका साराभाई,प.बिरजू महाराज,शोभना नारायण,उदयशंकर जी,सोनल मानसिंह आदि का नाम उल्लेखनीय है|इनके जैसे विभिन्न कलाकार अन्यान्य कला क्षेत्रो में काम करते हुए हमारी राष्ट्रीयता के गौरव को ही नहीं अपितु भारतीय कला वैभव को विश्वव्यापी बना कर हमारी सामासिकता को समृद्ध करने में लगे हैं|ये सभी कलाकार किसी एक जाति या पंथ के लिए काम नहीं करते वरन इनका लक्ष्य अकुंठ भाव से संपूर्ण मानवता को आह्लादित करना है|इनकी राष्ट्रीयता समग्र मानवता को समर्पित है|इनका लक्ष्य-संगच्छध्वं संवदध्वं संवोमनांसि जानताम- है| सत्ता की भाषा और विपक्ष की भाषा से ऊपर उठकर ये कलाकार संवेदनाओं की भाषा जानते है|सच्चा कलाकार समावेशी होता है,वह अपनी साधना को एकांगी नहीं रख सकता| इसके अलावा जो एक पक्ष या एक विचार लेकर चलते हैं,उनकी कुंठित मानसिकता से उपजी रचनाओं या कलाकृतियों का न तो समाज हित में कोई उपयोग होता है न राष्ट्र हित में|सच्चे साधक कलाकार समष्टि की संवेदनाओं की चिंता करते हैं, वैचारिक स्तर पर वैश्विक होते है| मुझे लगता है इन कलाओं का स्वरूप पहले से ही अंतर्राष्ट्रीय है इनमे राष्ट्रीयता खोजना इन्हें संकुचित करना होगा|शिव का अर्थ है कल्याण की भावना भारतीय कलाकार सत्यं शिवं सुन्दरम का लक्ष्य लेकर जीवन और जगत की अनंत यात्रा पर निकलता है| यश,अर्थ और परमार्थ के साथ ही ये कलाकार अपने कलाकर्म से भारतीय राष्ट्रीय गौरव को सदैव बढाते रहे हैं|आधुनिक समावेशी जीवन शैली के कारण अब तकनीकि के रथ पर सवार होकर हमारी कलाए विश्व भ्रमण कर रही हैं| आज हमारे समाज में पारंपरिक लोक कलाओं का महत्व बढ़ा है| रंगोली हो या फुलकारी कला सब हमारे जीवन का अंग बन गयी हैं- डा.वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार-“‘कांगड़ा के लोटे,बुंदेलखंड के चम्मू,गुजरात के रामणदीप,घरेलू झूले,पूजा के पंचपात्र,बिच्छू,मछली,सिह,आदि आकृतियों के ताले,नर नारी मिलन के आकार वाले सरौते,पंजाब की फुलकारी,कच्छ के वस्त्रो पर कांच के चांदो की टंकाई,चंदेरी साड़ियो के दिपदिपाते झलाबोर के चौड़े पल्ले ,गुजराती पटोले,राजस्थानी बांधनू,बंगाल के बलूचर की रेशमी साड़ियाँ –इस प्रकार की अनगिनत वस्तुए युग युग से कला क्षेत्र में विक्सित होकर मानवीय जीवन को सुन्दरता प्रदान करती रही हैं|” (पृष्ठ-228- कला और संस्कृति ) आज के कलाकारों को उनकी कला का समुचित मूल्य मिले ऐसी व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए| जैसे जैसे हमारे कलाकारों का विकास होगा हमारी राष्ट्रीयता और हमारी संस्कृति दुनिया में आगे बढ़ती रहेगी| हालांकि कुछ प्रगतिशील कलाकारों को अपने कौशल का उचित यश और मूल्य भी मिल रहा है|फिर भी अभी बहुत से साधक यथोचित अवसरों से वंचित हैं| कलाओं के विकास से ही हमारे देश की समावेशी जीवन शैली का विकास संभव है| अंतत: हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि हम अपने कलाकारों को सम्मान सहित कला साधना के अवसर प्रदान करें|जहां आवश्यक हो उन्हें अपेक्षित संरक्षण भी दें, क्योकि हमारी कलाएं हमारी राष्ट्रीयता की पहचान हैं| आपने हमें अपने विचार रखने के लिए यहाँ आमंत्रित किया इसके लिए बहुत आभार|
संपर्क:
सी-45/वाई-4 ,दिलशाद गार्डन,दिल्ली-110 095
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पुस्तक समीक्षा
नाटकों से पाठ्यचर्या को बेहतर बनाया जा सकता है
डॉ॰ भारतेंदु मिश्र
बच्चों को सिखाने के लिए नाटक एक सशक्त माध्यम है। आधुनिक समय में अधिकांश विद्यालयों में रचनात्मक शिक्षक इस विधा को अपनी पाठ्यचर्या का हिस्सा बनाने लगे हैं। प्रसंगवश अभी कथाकार बलराम अग्रवाल के 15 ऐसे ही छात्रोपयोगी नाटकों की पुस्तक ‘आधुनिक बाल नाटक’ शीर्षक से प्रकाश में आई है। लघुकथा के क्षेत्र में बलराम अग्रवाल एक बड़ा नाम है। इसके साथ ही बाल साहित्य के क्षेत्र में उनका काम लगातार पढ़ा सराहा जाता रहा है। इस संग्रह में संकलित कई नाटक अनेक प्रदेशों की पाठशालाओं के पाठ्यक्रमों में भी शामिल किये जा चुके हैं। जैसाकि ‘अपनी बात’ में लेखक ने स्पष्ट किया है—इस पुस्तक में संकलित नाटक ‘जरूरी खुराक’ को केरल शिक्षा विभाग द्वारा कक्षा 7 में, ‘पेड़ बोलता है’ को हिमाचल शिक्षा विभाग द्वारा कक्षा 4 में और ‘सूरज का इंतज़ार’ मुम्बई की शिक्षण संस्थाओं द्वारा कक्षा 6 में पढ़ाया जा रहा है। पढ़ाया जा रहा है।
बलराम अग्रवाल अनेक वर्ष रंगमंच पर सक्रिय रहे हैं। अत; माना जा सकता है कि उन्हें नाटक की मूलभूत आवश्यकताओं की समझ है। उन्होंने इन नाटकों को बालमनोविज्ञान की अपनी समझ के आधार पर रचा है। इनमें वर्णित प्रसंगों और दृश्यबंधों को लेखक ने जीवन के दैनन्दिन आयामों से चुना है। ये नाटक यथार्थ जीवन की महत्वपूर्ण जानकारी देने वाले भी हैं और खेल-खेल में बच्चों को जीवन की सीख भी दे जाते हैं। बच्चों के लिए इन नाटकों का बड़ा महत्व है। इस पुस्तक में कुल 15 बाल नाटक संग्रहीत हैं जिन्हें एकांकी और नुक्कड़ के शिल्प में लिखा गया है। इसके साथ ही इन्हें तीन खंडों में विभाजित भी किया गया है। पहले खंड में जीवन के प्रेरक प्रसंगों पर आधारित पाँच नाटक हैं जिनमे क्रमश: ‘अपना सुल्लू’,‘जरूरी खुराक’,‘चमत्कारी छडी’,‘होई हो हे हे’,‘लुटेरे राम नाम के’ शामिल हैं। दूसरे खंड में चार नाटक महात्मा गांधी जी के जीवन के प्रसंगों पर आधारित हैं, जिनके शीर्षक हैं—‘मोहनदास का साहस’,‘पश्चात्ताप के आँसू’,‘सूरज का इंतजार’ और ‘मालिक मजदूर और नेता’। इसी खंड में एक नाटक नेताजी सुभाषचंद्र बोस के जीवन की घटना पर भी केन्द्रित है जिसका शीर्षक है—‘आजादी के दीवाने’। तीसरे खंड में पर्यावरण संरक्षण तथा वृक्षों की उपयोगिता पर केन्द्रित पाँच नाटक हैं, जिनका शीर्षक है—‘पेड़ बोलता है’,‘पीपल बोलता है’,‘नीम बोलता है’,‘बेल बोलता है’ तथा ‘पेड़ बचेगा तभी बचेंगे’।
इन नाटकों की विशेषता यह है कि ये सहजता से बच्चों को उनकी अपनी सरल भाषा में समझ में आने वाले हैं। अध्यापकों द्वारा बिना किसी बड़े इंतजाम के इन्हें विद्यालय स्तर पर खेलाया जा सकता है। जीवन और शिक्षा को जोड़ने के लिए नाटक बेहतरीन प्रयोग तो होता ही है। आधुनिक शिक्षा मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि नाटकों के माध्यम से पाठ्यचर्या को बेहतर बनाया जा सकता है। आशा है पुस्तक में संग्रहीत इन नाटकों से भाई बलराम अग्रवाल को यश मिलेगा और शिक्षा जगत में इस पुस्तक समुचित आदर होगा। लेखक को बधाई।
पुस्तक : आधुनिक बाल नाटक लेखक : बलराम अग्रवाल प्रकाशक : राही प्रकाशन, ए-45, गली नं 5, करतार नगर, दिल्ली-110053 प्रथम संस्करण :2017 मूल्य : 200 रुपये
समीक्षक संपर्क : डॉ॰ भारतेंदु मिश्र, सी-45/वाई-4 ,दिलशाद गार्डन,दिल्ली-110095
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लेखक-भारतेंदु मिश्र
(परवेज उर्फ़ पोनू एक नेत्रहीन बालक है| उसकी विधवा मा उस बच्चे के स्कूल में दाखिले के लिए बहुत परेशान है,स्थान दिल्ली की एक सामान्य किन्तु मलिन बस्ती –शास्त्री पार्क| घर का सीन )
जरीन: क्या बताऊ ?...सब तरफ से हार गयी हूँ ..कोई मेरे बेटे का दाखिला नहीं करता|(घर में बर्तन साफ़ करते हुए बार बार आंसू निकल आते हैं |)
नजमा: (अखबार का पन्ना लेकर )..अम्मी...ओ अम्मी!...अखबार देखा आपने..?
जरीन: अरे ..रहने दे ,कंही भूकंप आया होगा,कोई हादसा होगा... किसी की मौत की खबर होगी ?..अच्छी खबर तो कुछ होती नहीं ..
नजमा: नहीं..अम्मी !सरकार ने विज्ञापन निकाला है |अब ब्लाइंड बच्चे भी अपने घर के करीब के स्कूल में पढ़ाई कर सकेंगे..
जरीन: (झाडू फेक कर नजमा को गले लगाते हुए )..हाय...नजमा ! तू सच कह रही है ?...हाय ,अल्ला!..
नजमा: हाँ !..अम्मी मैं सच कह रही हूँ |ये अखबार में लिखा है..
जरीन: काश!...मेरे परवेज का दाखिला हो जाए..
नजमा: चलिए ..अमजद के स्कूल चलते हैं |दोनों भाई एक साथ जाया करेंगे...
जरीन: चल बेटा!..पोनू ! स्कूल चलते हैं|
(स्कूल पहुंचकर ,दाखिला इंचार्ज के पास..)
जरीन: नमस्ते ,साहब!
इंचार्ज: जी नमस्ते,
जरीन: साब,मेरे लडके का दाखिला करना है| रजिस्ट्रेशन कर लीजिए..
(बिना सर उठाये..लिखते हुए )
इंचार्ज: जी,बच्चे का नाम ?
जरीन: जी परवेज,..
इंचार्ज: उम्र ?
जरीन: 12 साल|
इंचार्ज:(सर उठाकर..) कहाँ है बच्चा ?
जरीन: जी! साब,ये रहा ...
इंचार्ज: बहन जी ये तो ब्लाइंड हैं ?
नजमा: तो क्या हुआ?..अखबार में आया है सभी तरह के बच्चे घर के पास के स्कूल में पढ़ सकते हैं |
इंचार्ज: ठीक है ,मै ..तो कह नहीं सकता, आइए ..आप हमारे प्रिसिपल साहब से मिल लीजिए..
नजमा : जी ठीक है..
(दाखिला इंचार्ज के साथ तीनो प्रिंसिपल के कमरे की ओर जाते हैं|)
इंचार्ज: (चपरासी से ) रामलाल!..साहब हैं?
रामलाल : बैठे हैं ,जाइए..
इंचार्ज: (भीतर जा कर ) सर! ये बहन जी इस ब्लाइंड बच्चे के दाखिले के लिए आयी हैं ...
प्रिंसिपल: जी बताए ...
जरीन: साहब ! हमारा एक बच्चा यही पढ़ता है..मेरे इस बच्चे का भी दाखिला कर लीजिए..दोनों भाई साथ आ जाया करेंगे ..
नजमा: सर! ..ये देखिए ..आज के अखबार में भी विज्ञापन निकला है..
प्रिसिपल: देखिए ये नामुमकिन है..आपका वो बच्चा नार्मल है| ये ब्लाइंड है|..इसे ब्लाइंड स्कूल में ले जाइए..
नजमा: लेकिन सर! ये अखबार..
प्रिंसिपल: जाइए..हमारा समय बर्बाद मत कीजिए..
नजमा: लेकिन सर! ये विज्ञापन ...
प्रिंसिपल: तो जाइए ...अखबार वालो के पास जाइए ..हमारा समय बर्बाद मत कीजिए..रामलाल!..इन्हें बाहर करो..
जरीन: साहबा मेहेरबानी कीजिए..
रामलाल: आपको समझ नहीं आता...साहब बहुत बिजी हैं ..चलिए बाहर चलिए..|
(घर वापस आकर,दूसरे दिन )
नजमा; अम्मी!..आपने हमारे कपडे प्रेस नहीं किए..आप हमारा कोई काम नहीं करती हैं ...
जरीन: हाँ नहीं किए..तू अपना काम खुद कर लिया कर..अब बड़ी हो गयी है...आज छुट्टी के दिन तुझे कहा जाना है ?
नजमा: मुझे मूवी देखने जाना है...
जरीन: अभी पिछले महीने तो गयी थी..
नजमा: तो क्या हुआ अब बजरंगी भाईजान नई मूवी देखने जा रही हूँ |
अजहर : मै भी चलूँगा,आपा!..
नजमा: मै अपनी सहेली के साथ जा रही हूँ ..तू कहाँ कबाब में हड्डी बनेगा ?
पोनू : आपा! आपा! ..मुझे भी ले चलो..
नजमा : लो कर लो बात..हाय,अल्ला, आँखों से दिखाई नहीं देता ...मूवी देखेंगा..
जरीन: जाना है तो तीनो साथ जायेंगे..
नजमा: पोनू को तो नहीं ले जाऊगी ..मै इसको पकड़ के घूमूंगी कि मूवी देखूंगी..न..अम्मी ... इसे नहीं ले जाऊंगी|
अजहर: ले चलते हैं ..हम दोनों मिलके संभाल लेंगे..
नजमा: तू अकेले संभाल सके तो ले चल, मै तो नहीं ले जाऊंगी..
(जरीन के बार बार कहने पर भी नजमा और अजहर पोनू को रोता हुआ छोड़कर चले जाते हैं |)
पोनू : मेरे साथ ऐसा ..हर दफा होता है..अम्मी!..(.रोते हुए जमीन पर लोट जाता है..जरीन उसे संभालती है |)
जरीन: मै तुझे लेकर चलूंगी..चल, तेरा मन पसंद हलवा खिलाती हूँ |
पोनू : कुछ नहीं खाना..मुझसे बात मत करो| (फिर रोने लगता है|)
जरीन: (प्लेट में हलवा देती है )..ले हलवा खा ले..
(पोनू उसे फेक देता है|जरीन किसी तरह उसे बहलाने की कोशिश करती है| कपडे सिलने के लिए सिलाई की मशीन चलाने लगती है| इसीबीच मोहल्ला सुधार समिति वाले शुक्ला जी आते हैं | )
शुक्ला: जरीन आपा! ..ओ जरीन आपा!
जरीन: जी ,शुक्ला जी आइए..बैठिए |
शुक्ला : जी ठीक है ,बैठने का वख्त नहीं है ..आप अपने लडके का नाम और उम्र लिखवा दीजिए..मै एम्.एल.ए.साहब की मीटिंग में जा रहा हूँ |वहाँ उसके दाखिले की बात करूंगा..
जरीन: जी शुक्ला जी! अगर ऐसा हो जाए तो बड़ी मेहेरबानी होगी |..लिख लीजिए-नाम है - परवेज,उम्र 12 साल|
शुक्ला: कोई विकलांगता का प्रमाणपत्र है ?
जरीन: और तो कुछ भी नहीं है मेरे पास..
शुक्ला: उसको और क्या परेशानी है ?
जरीन: परेशानी तो कुछ भी नहीं है शुक्ला साहब!..अब क्या बताऊ, एक देखने के अलावा मेरा परवेज हर काम में मेरे तीनो बच्चो में सबसे ज्यादा हुशियार है|
शुक्ला: आप चिंता न करे..इसका दाखिला कराऊंगा..
जरीन: जी शुक्रिया शुक्ला जी |
(नजमा और अजहर फिल्म देखकर आते हैं )
नजमा: यार,क्या मस्त मूवी बनाई है..गूंगी बच्ची का रोल कितना बढ़िया है..
अजहर: हां,और वो गाना भी बेहतरीन है..सेल्फी..वाला|
(परवेज गाना गाता हुआ आता है|)
परवेज: चल बेटा सेल्फी ले ले रे..
नजमा: तुझे कैसे मालूम?
परवेज: मुझे सल्लू भाई की सारी फिल्मो के गाने और स्टोरी याद हैं |
नजमा: एक बात तो है अम्मी! हमारा पोनू है बहुत इंटेलीजेंट |
जरीन: बात तो तू ठीक कह रही है|..बस इसका स्कूल में दाखिला हो जाए..|अभी शुक्ला जी आये थे,इसका दाखिला कराने की बात कह रहे थे|
नजमा: हो जाएगा अम्मी! ..अब तो सरकार ने विज्ञापन भी निकाल दिया है..
जरीन: अरे, तुझे क्या मालूम, लाचार बेवा की कौन सुनता है..देखा था..प्रिंसिपल ने कैसे बात की थी|
(शुक्ला जी का प्रवेश..)
शुक्ला जी: जरीन आपा,..क्या कर रही हैं...
जरीन: ..करना क्या..बस घर के काम कर रही हूँ ..
शुक्लाजी:- छोडिये ये सब चलिए परवेज का दाखिला कराने चलते हैं..
जरीन:- जी चलिए शुक्ला जी मैं तो आपका इंतज़ार कर रही थी|
(जरीन,परवेज के साथ शुक्लाजी स्थानीय स्कूल पहुंचते है| एडमीशन इंचार्ज से मिलते है| )
शुक्लाजी:- मास्टर साहब ,ज़रा इस बच्चे का दाखिला कराना है ..
एडमीशन इंचार्ज: - (सर झुकाए हुए कुछ काम करते हुए )जरूर कराइए ,हम इसी के लिए बैठे हैं जनाब|(सर उठाकर देखते हुए)...लेकिन भाई साहब ,ये तो ब्लाइंड बच्चा है...
शुक्ला जी :- फिर क्या हुआ..?
एडमीशन इंचार्ज:- इसका तो दाखिला नहीं हो सकता...
शुक्ला जी;-- क्या बात करते हो..कौन है तुम्हारा प्रिंसिपल ज़रा उससे मिलवाओ..एम्.एल.ए. से लिखवाके लाया हूँ|
एडमीशन इंचार्ज:- जी जनाब ,प्रिंसिपल साहब उधर सामने वाले कमरे में बैठे हैं..
शुक्ला जी:- चलो जरीन आपा..(तीनो प्रिंसिपल के आफिस की और जाते हैं | साहब का दरबान बताता है| )
रामलाल:- साहब अभी बिजी है|
शुक्ला जी;- उनको बता दो नेता जी आये है ,ये मेरा कार्ड है..
रामलाल :- रुकिए ,देखता हूँ ..
(नेता का कार्ड देखकर प्रिंसिपल बुला लेता है|)
शुक्ला जी:- साहब,मैं इस परवेज के दाखिले के लिए आया हूँ |
प्रिंसिपल :- शुक्ला जी,ये बहन जी पहले भी आ चुकी है |इन्हें समझा चुका हूँ |अब ये आपको ले आयीं|..ये बच्चा पढेगा कैसे? लिखेगा कैसे?...इसे ब्लाइंड स्कूल में दाखिल कराओ|
शुक्लाजी;- ब्लाइंड स्कूल तो यहाँ कही है नहीं...ये तो इसी स्कूल में पढेगा..फिलहाल मैं विधायक जी से लिखवा के आया हूँ..जरूरत पडी तो ऊपर भी जाऊंगा|
प्रिंसिपल:- आप तो नाराज होने लगे..बैठिये..आप भी बैठिये बहन जी| रामलाल!..ज़रा एडमीशन इंचार्ज को बुलाओ..
रामलाल :- जी साब!
एडमीशन इंचार्ज:- सर,ये बहन जी दो बार पहले भी आ चुकी है |इन्हें समझा चुके हैं|
प्रिसिपल:- कोई बात नहीं समावेशी शिक्षा के अंतर्गत अभी इनका दाखिला कर लेते हैं| फिर देखते हैं |
एडमीशन इंचार्ज:- ठीक है सर|..किसकी क्लास में भेजूं ..
प्रिंसिपल:- शर्मा जी की क्लास में भेजो|..जाइए आप भी शर्मा जी से मिल लीजिए|..रामलाल,जाओ इन्हें 6 बी के क्लास टीचर पी.के.शर्मा जी से मिलवाओ|
रामलाल:- आइये..(कमरे से बाहर निकल कर ) क्या नेता जी ..हमारे स्कूल में इस अंधे बच्चे का दाखिला करा रहे हो?...
शुक्लाजी:- (रामलाल का कंधा पकड़कर हिलाते हुए)..तू कौन है ?तुझे क्या तकलीफ है?..दुबारा इस बच्चे को अंधा कहा तो …नौकरी साफ़ हो जायेगी|
रामलाल:- (हाथ जोड़कर )गलती हो गयी साहब!... लीजिए ये शर्मा जी बैठे हैं ..आप बात कर लीजिए|
शुक्ला जी:- शर्मा जी! इस बच्चे का दाखिला आपकी क्लास में हुआ है|
शर्मा जी:- ज़रा पेपर्स दिखाइए..ओ ..नो..आप ज़रा बैठिये ,मैं प्रिंसिपल से मिलकर आता हूँ|
(प्रिसिपल के कमरे में )
शर्माजी:- ये क्या किया सर?..मैं ही मिला था दुश्मनी निभाने को..मेरी क्लास में ...ब्लाइंड बच्चा कैसे पढेगा..कैसे लिखेगा..मेरे बस का नहीं है सर!...कोई स्पेशल टीचर भी नहीं है स्कूल में ..
प्रिंसिपल:- शर्मा जी! आप तो घबरा गए..इसके लिए ब्रेल बुक्स आयेंगी|इसे राइटर देना होगा|स्पेशल एजूकेशन टीचर भी चाहिए| सब फ़ाइल बनाकर ऊपर भेजते है|..आप तो जानते है..सरकार इन्क्लूसिव एजूकेशन पर कितना जोरे दे रही है|..हम दाखिले को मना नहीं कर सकते..नौकरी खतरे में पड़ जाएगी..|
शर्मा जी;- मुझसे क्या दुश्मनी है सर ? आपने ..तो कह दिया..
मेरा तो सिर भन्ना रहा है|
प्रिंसिपल:- परेशान ना हो ..इसका भाई अजहर भी 8वीं पढ़ता है| उसके साथ और बच्चो को लेकर इसका एक पीयर ग्रुप बन जाएगा|
(स्टाफ रूम का सीन,अध्यापक बात कर रहे है -)
एक- सुना है इस स्कूल में अब ब्लाइंड बच्चे भी पढेंगे..
दो- अरे पी.के.शर्मा जी की क्लास में दाखिला भी हो गया..
तीन- अब स्कूल का सत्यानाश हो गया|
चार;- सही बात है..वो बच्चा कही गिर गिरा पडा तो मुसीबत हो जायेगी|
शर्माजी;-मेरी जान संकट में है, मैं तो ट्रांसफर की सोच रहा हूँ..
एक:- ये कोई समाधान थोड़ी हुआ ..आप जाओगे तो दूसरे टीचर के गले में हड्डी लटक जायेगी..|आप चिंता मत कीजिए ..हम सब साथ है|..प्रिंसिपल से बात करेंगे|
(छ महीने बाद,अचानक स्कूल के प्रिसिपल के पास फोन आता है )
प्रिंसिपल- हेलो .. जी परवेज हमारे स्कूल में ही पढ़ता है..क्या हुआ ?....जी ..अरे वाह!..ये तो बहुत खुशी की बात है|..जी धन्यवाद|
(घंटी बजाकर ..)
प्रिंसिपल: रामलाल,ज़रा परवेज के क्लासटीचर शर्मा जी को बुलाओ...
रामलाल: क्या हुआ साब!...
प्रिंसिपल:परवेज ने कमाल कर दिया|....बुलाओ शर्मा जी को ..
रामलाल:-साब! बुलाये हैं
शर्मा जी: अब ..क्या है ?
रामलाल: परवेज के चक्कर में ..कोई फोन आया है ..
(प्रिंसिपल के कमरे में )
प्रिंसिपल: अरे शर्मा जी! कमाल हो गया...भई ,आपका परवेज स्टेट का बेस्ट टैलेंटेड स्टूडेंट चुना गया है ...मुबारक हो आपको ,उसने तो स्कूल का भी नाम रोशन कर दिया|3 दिसम्बर को शिक्षा सचिव के हांथो उसको पुरस्कार दिया जाएगा|
शर्मा जी: कमाल है साब! ..वो है तो बहुत टेलेंटेड ..बस देखने की समस्या है वरना..
प्रिंसिपल: बुलाओ ज़रा उसकी अम्मी को बुलाओ..फोन कीजिए|
शर्माजी: जी सर!(फोन लगा कर)..हेलो बहन जी ! आप परवेज की अम्मी बोल रही हैं...अगर आप स्कूल आ सकती है तो..परवेज के बारे में बात करनी है|
शर्मा जी: (प्रिंसिपल से ) सर वो आ रही है...
(जरीन प्रिंसिपल के कमरे में प्रवेश करती है|सभी उसका स्वागत करते हैं|)
जरीन:- साहब! नमस्ते|
प्रिंसिपल- नमस्ते बहन जी!..आपका परवेज तो बहुत होशियार है..उसने तो हमारे स्कूल का नाम रोशन कर दिया|उसे गायन में में स्टेट में बेहतरीन स्टूडेंट का अवार्ड मिल रहा है|
जरीन:- जी जनाब! ..ये तो बहुत खुशी की बात है| साहब! मैं तो पहले भी आपसे कहती थी कि..बस इसे एक मौक़ा दीजिए..
प्रिंसिपल: जी आप सही कह रही थीं |..अब हमने उसके लिए पढाई का सब इन्तिजाम भी कर लिया है| ब्रेलबुक सरकार से मिल रही है |एक स्पेशल टीचर भी स्कूल में आ गया है|इसे अलग से स्कालरशिप तो मिल ही रही है|आप भी समारोह में चलिए..
जरीन: बड़ी मेहेरबानी है आपकी |
प्रिसिपल: बहन जी ! इसमें मेहरबानी कैसी?..ये तो हमारा काम है|
############################################################प्रस्तुति: भारतेंदु मिश्र
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सहभागिता ही दाम्पत्य का मूल सिद्धांत है
# डॉ.भारतेंदु मिश्र
चर्चित कथाकार अशोक गुजराती का नाम हिन्दी कहानियों के लिए जाना जाता है |अभी हाल में ही ‘बीर-बहूटी’ शीर्षक उनका नाटक बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है|यह नाटक समकालीन स्त्री पुरुष के मनोवैज्ञानिक द्वंद्व को लेकर लिखा गया है|दाम्पत्य जीवन के द्रश्य बहुत मार्मिक ढंग से लेखक ने प्रस्तुत किये हैं|प्रमुख पात्र चंद्रहास और उसकी पत्नी अरुन्धती है,जबकि सहायक पात्र अक्षत और वसुंधरा के अलावा किशन -रूपा ,रोचक- रिदम और डाक्टर हैं|
पूरा नाटक तीन अंकों में विभक्त है|कथाकार लेखक शहरी मध्यमवर्गीय पात्रों को लेकर अपने कहन और परिस्थितियों के सृजन को लेकर आगे बढ़ता है|जीवन की मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को जिस तरह से शराब पीकर पात्रों द्वारा हल करने की कोशिश की जाती है वह शहरी मध्यवर्ग के परिवारों में आम बात है|लेकिन नाटक की स्त्रियाँ इसे बुरा नहीं मानतीं बल्कि पुरुष पात्रों का सहयोग करती हैं|अरुंधती का किरदार एक प्रगतिशील महिला के प्रतीक के रूप में लेखक ने अच्छे ढंग से उपस्थित किया है|वह स्वयं भी नौकरी करती है और वसुंधरा को भी नौकरी करने की प्रेरणा देती है|अक्षत और वसुंधरा के दाम्पत्य को सुव्यवस्थित करने की सलाह भी वही देती है| नाटकीयता चंद्रहास के और अरुंधती के दाम्पत्य संबंधों से आगे बढ़कर नर नारी संबंधों की पड़ताल करते हुए कथानक को आगे ले चलती है|चंद्रहास पुरुष स्वाभिमान या अहंकार का प्रतीक है|नाटक में जीवन की परिस्थितियाँ उसे नौकरी चली जाने से उत्पन्न खंडित अहं वाले, अवसाद ग्रस्त बेरोजगार व्यक्ति के रूप उपस्थित करती हैं| ऐसा करके अरुंधती के पात्र को लेखक ने स्पेस दिया है ताकि स्त्री के कामकाजी पक्ष को विधिवत सामने लाया जा सके|
नाटक जिस समस्या को लेकर आगे बढ़ता है वह स्त्री पुरुष संबंधों की आपसी समझदारी और विश्वास में इजाफा करना है| अरुंधती का कथन है-‘नहीं,तुम स्त्री को अभी तक समझा नहीं पाए|अपवाद हो सकते हैं परन्तु कोइ समझदार औरत बिना किसी विशेष परिस्थिति के कभी भी अपने चरित्र से समझौता नहीं करेगी|और यदि आदमी जैसी वह किसी कारण ऐसा दुस्साहस कर जाती है तो तुम्हारे पुरुष प्रधान समाज को ऐतराज क्यों है?’(पृ-13,बीर-बहूटी )
असल में लेखक का मानना है कि पुरुष को पराई स्त्री से संबंध बनाने पर मर्दवादियों पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता लेकिन जब कोई स्त्री पराये पुरुष से ऐसा करने की बात सोचती है या करती है तो वह वेश्या के समकक्ष धिक्कारी जाने लगती है|लेकिन अब समाज बदल चुका है हमारे घर परिवार की शक्ल भी बदल गयी है|पुरुष को नौकरी करनी चाहिए और बाहर के काम जबकि स्त्री को घर में रहकर बच्चों को संभालना चाहिए यह मर्दवादी सामाजिक शहरों से ख़त्म हो रही है लेकिन इस सोच को पूरी तरह से नष्ट होने में समय लगेगा|अभी तक वह सहिष्णुता का वातावरण बन नहीं पाया है|नाटक में ‘बीर-बहूटी’ का सार्थक नैसर्गिक जीवन दर्शन लेखक देने का प्रयत्न करता है|असल में स्त्री और पुरुष प्रकृति के दो खिलौने हैं,जिनमें कोई बड़ा या छोटा नहीं होता|परन्तु अभी बहुत कुछ हमारे जीवन में जस का तस है| खासकर मध्यवर्ग के दाम्पत्य जीवन में वैसी सहभागिता और सदाशयता नहीं आ पायी जैसी प्राकृतिक स्वाभाविक स्वतंत्रता की कल्पना की जाती है|वास्ताव में समानता पर आधारित सहभागिता ही दाम्पत्य जीवन का मूल है| टूटे हुए अंहकार को मिली संजीवनी की तरह चंदर को नाटक के अंत में जब दूसरी नौकरी मिल जाती है तब वह उस सुख को समझने के लायक नहीं रहता|यह भी पता नहीं चल पाता कि नायक चंदर के चहरे पर आयी प्रसन्नता अक्षत द्वारा अरुंधती को दीदी कहने से उत्पन्न हुई है या कि बहुत दिनों बाद फिर से अच्छी नौकरी मिल जाने से| पात्र चयन कथावस्तु के अनुरूप ही है|संवाद कहीं कहीं यदि और मांज दिए जाते तो नाटकीयता का प्रभाव और बढ़ जाता,तथापि मंचन करने वाले अभिनेता अपने हिसाब से संवादों को छोटा या बड़ा कर लेते हैं|अच्छे मुद्दे को लेकर समसामयिक सामाजिक विषय के नाटक हेतु लेखक अशोक गुजराती को बधाई |
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बीर-बहूटी-(नाटक)/लेखक-अशोक गुजराती/प्रकाशक-बोधि प्रकाशन/वर्ष-2018/मूल्य-60/रु.
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वैदिक और भरतकालीन स्त्रियाँ : कलाओं में भागीदारी
# भारतेंदु मिश्र
भरत मुनि के समय में और उसके बहुत समय बाद तक अभिनय आदि ललित कलाओं और प्रदर्शनकारी कलाओं में समाज की सभी स्त्रियों की भागीदारी पुरुषों के ही सामान थी| साहचर्य की अविरल व्यवस्था में वहां कोई अंतर नहीं था,महाभारत और रामायण काल तक स्त्री पुरुष दोनों को साथ साथ काम करते हुए हम देख सकते हैं| कैकेयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध पर जाती हैं और युद्ध में उनकी सहयोगी बनकर उनकी सहायता करती हैं|सीता राम के साथ वनगमन करती हैं|इसीप्रकार संगीत समारोहों में, शरादोत्सवों,वसंतोत्सवों और स्वयंवरों में भी उनकी सामान भागीदारी होती थी| उस समय भी सौन्दर्य,वैभव और शक्ति का प्रदर्शन राजा किया करते थे|ऋग्वेद में अनेक मंत्रदृष्टा महिला ऋषियों का उल्लेख मिलता है| प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी के अनुसार - ‘ऋग्वेद तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में कतिपय स्त्रियों का ऋषि के रूप में उल्लेख है। स्त्री के ऋषि होने का अर्थ है कि वह मंत्रों का साक्षात्कार कर लेती है। हरिपद चक्रवर्ती(1981: 54) ने लोपामुद्रा, अपाला तथा घोषा को महिला ऋषि माना है। मांधात्री, अगस्त्य की अज्ञातनाम बहिन, वसुक्र की पत्नी, शाश्वती, गोधा विश्ववारा भी ऐसी ही महिला ऋषि हैं। मंत्रों की रचनाकार कवि के रूप में घोषा का उल्लेख ऋग्वेद (1.117.7, 10.40.5, 10.39.3.6) में आता है। ‘(संस्कृत साहित्य में स्वाधीन स्त्रियाँ)
हमारी परंपरा में वैदिक साहित्य से ही स्त्री पुरुष के संवाद यज्ञ आदि कर्मकांडों के अवसर पर नाटक के रूप में प्रयुक्त किए जाते रहे हैं| स्त्रियाँ पुरुषों के सामान और समकक्ष हैं,वहां कोई भेद या असामनता नहीं है|ऋग्वेद के दशम मंडल में संवाद सूक्तों की प्रमुखता इस बात का प्रतीक है| पुरुरवा -उर्वशी संवाद,यम -यमी संवाद,अगस्त्य -लोपामुद्रा संवाद,सरमा- पणि संवाद आदि को पढ़ने से यह सहज रूप में ज्ञात होता है कि ये संवाद ही बाद में नाट्य के रूप में प्रकट हुए| इन संवादों में उत्तर प्रत्युत्तर की शैली है और इनमें संवेगात्मक नाटकीयता भी विद्यमान है| सरमा -पणि सूक्त में तो सरमा अपनी पैने संवादों से पणियों को हतप्रभ और निरुत्तर कर देती है| यम -यमी संवाद में यमी के प्रत्येक आरोप का यम त्वरित उत्तर देते हैं| --विवस्वान के पुत्र यम की बहिन यमी अपने ही जुडुआ भाई से प्रेम एवं संतति की याचना करती हैं| परन्तु यम यह कहते हुए उसके प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देता हैं कि हम दोनों एक ही एक ही साथ एक ही माता के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं,इसलिए यह उचित नहीं है-यमी कहती है-जब हम दोनों एक साथ माता के गर्भ रूपी महासागर में एक दूसरे की नौका बन चुके हैं तो अब क्या अनुचित है? यम कहता है-देवताओं के श्रेष्ठ पहरेदार वरुण देख लेंगे एवं क्रुद्ध हो जायेंगे तुम किसी अन्य को अपना पति बनाओ| इसके विपरीत यमी कहती हैं - वे इसके लिए अपना आशीर्वाद देंगे| इस संवाद का आगे अंत कैसे हुआ, यह प्रसंग तो ऋग्वेद में नहीं हैं|इसी प्रकार सरमा -पणि संवाद है- जब देवराज इन्द्र के बार बार कहने के बाद भी पणियों ने उनकी गायों को नहीं छोड़ा और जिससे प्रजा व्याकुल होने लगी, तब इन्द्र ने देवाशुनी सरमा को (कुतिया) दूती के रूप में भेजा । सरमा अर्थात ‘सरति गच्छति सर्वत्र इति सरमा, देवानां सुनी सूचिका दूती वा देवशुनी सरमा’- कही गई है। इस प्रकार देवशुनी बादल की गड़गड़ाहट रूपी ध्वनि के साथ पणियों से संवाद करती है और कहती है कि हमारे राजा की गौओं को छोड़ दो, नहीं तो हमारा बलवान राजा दण्ड देगा। पणियों ने देवशुनी की बात नहीं मानी, तब इन्द्र ने वज्र प्रहार कर अर्थात् वायु के प्रहार के माध्यम से पणियों को मारकर धरती पर सुला दिया और अपनी गायों को मुक्त करा लिया। सारा संसार वृष्टि से सुखी हुआ और सूर्य की किरणें चारों ओर फैल गईं।
इसी प्रकार शापित उर्वशी स्वर्ग से धरती पर आकर पुरुरवा से प्रेम करती है पुत्र का जन्म भी होता है और फिर वह पुरुरवा की प्रत्येक अनुनय भरी उक्ति को नकारती हुई इन्द्रलोक चली जाती है| कालिदास ने बाद में इसी संवाद को लेकर संभवत: ‘विक्रमोर्वशीयम’ नाटक की रचना की थी| तात्पर्य यह कि वैदिक काल से ही स्त्री अकुंठ भाव से जीवन में सहचरी है और रंगमंच पर भी विद्यमान है| इस प्रकार के उदाहरणों से यह तो साफ़ होता है कि वैदिक काल की स्त्रियाँ अकुंठ और वर्जनाओं से मुक्त थीं| उन्हें जो अपने लिए उचित लगता है वह स्पष्ट कह लेती हैं| अपनी स्वेच्छा ही उनके लिए महत्वपूर्ण होती थी,वे पराधीन तो बिलकुल ही नहीं थीं| प्राचीन काल के यज्ञों के आयोजनों में अनुष्ठान के अंश के रूप में पुंश्चली अर्थात अनेक पुरुषों के संपर्क में रहने वाली स्त्री का ब्रम्हाचारियों से संवाद होता था | आज के समाज में हम इसे अश्लील कह सकते हैं| इसका उद्देश्य संभवत: ब्रम्हचारी के ब्रम्हचर्य की दृढ़ता से परीक्षा करना होता था| इसके मूल में ये संवाद धर्मिता ही कालान्तर में नाटक के रूप में विक्सित होती गयी| ये वैदिक कर्मकांड मनुष्य जीवन की गहरी संलिप्तता के प्रतीक होते थे| हमारे षोडस संस्कारों में विवाह,यज्ञोपवीत संस्कार आदि के अवसर पर भी भाभियों,पत्नी की सहेलियों,बहनों आदि के द्वारा वर से और ब्रम्हचारी से हंसी मजाक आदि को उत्सव के रूप में शामिल कर लिया गया|ये सब स्त्रियाँ स्वतन्त्र भाव से किसी न किसी रूप में अपनी वाचिक चतुराई और कौशल का ही प्रदर्शन करती हैं|
माना जाता है कि भारत में रंगमंच की परंपरा बहुत पुरानी है| भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में ही यह माना है कि वो जो नाट्यशास्त्र की चर्चा करने जा रहे हैं वह पहले से ही लोक में व्याप्त है|भरतमुनि का समय ईसा से लगभग 400 वर्ष पूर्व माना जाता है| पाणिनि ने भी भरत से पूर्व नट सूत्रों की चर्चा की है| भरतमुनि नाटक में स्त्री पात्रों की विस्तार से अभिनय,नृत्य ,संगीत आदि के क्षेत्र में चर्चा करते हैं| पूर्वरंग की परंपरा नट और नटी के द्वारा ही संपन्न की जाती थी| अर्थात नट और नटी दोनों मिलकर ही नाटक का शुभारंभ करते थे|
महाभारत कालमें रंगमंच का और अधिक विस्तार हुआ| धृतराष्ट्र ने भी प्रेक्षागृहों का निर्माण करवाया| स्वयंबर आदि जैसे आयोजन भी विशाल रंगशालाओं में ही संपन्न होते थे| हमारी परंपरा में प्राचीन काल में स्त्री को अपना वर चुनने का अधिकार था| संस्कृत नाटकों में अंत:पुर का उल्लेख अवश्य मिलता है किन्तु स्त्रियों के लिए कहीं किसी प्रकार का पर्दा या घूघट आदि का प्राविधान नहीं किया गया था|
उर्वशी अप्सरा इंद्र के दरबार में नृत्यांगना है|एक बार गंगा यमुना संगम स्थल प्रयाग के निकट प्रतिष्ठानपुर के राजा पुरुरवा को आकाशमार्ग से स्त्रियों के रोने चीखने का स्वर सुनाई देता है तो वो उस स्त्री के निकट जाकर कारण का पता करते हैं तो मालूम होता है कि केशी नामक राक्षस ने उसकी प्रिय सखी उर्वशी का अपहरण कर लिया है | केशी का वध कर सम्राट उर्वशी की रक्षा करते हैं लेकिन पहली बार में ही उर्वशी को देखते ही वे उससे अपना हृदय हार जाते हैं| उर्वशी भी इस अप्रतिम शक्तिशाली तेजस्वी राजा को देखर उस पर मुग्ध हो जाती है परन्तु उस समय उर्वशी अपने परिजनों अर्थात मेनका,रम्भा और सखी चित्रलेखा के साथ देवलोक वापस चली जाती है|दोनों एक दूसरे से प्रेम में करने लगते हैं|पुरुरवा की पत्नी औशीनरी जो महारानी है उसको भी अपने पति का यह प्रेम प्रसंग ज्ञात हो जाता है लेकिन वह प्रकट रूप से उसका विरोध नहीं करती|उर्वशी की विह्वलता बढ़ती जाती है एक दिन इन्द्रसभा में नृत्य करते समय गायन के अवसर पर वह देवराज इंद्र के बजाय पुरु का नाम ले लेती है तो यह सुनकर रंग निर्देशक मुनि क्रोधित होकर उसे श्राप देते हैं| फिर देवसभा में श्राप पर पुनर्विचार किया जाता है और तय होता है कि ये धरती पर जाकर पुरुरवा के साथ रहे और पुत्र जन्म के पश्चात इसका शापमोचन संभव है|राजा बार बार अनेक तरह से उर्वशी से उसे अपनालेने के लिए आग्रह करता है किन्तु उर्वशी अपने निर्णय पर अटल रहती है और पुत्र जन्म के बाद इंद्र की सेवा में पुन: चली जाती है | ऐसे ही शची,गार्गी,मैत्रेयी आदि नारी पात्र वैदिक और पौराणिक काल में देवियों के अनेकानेक रूप स्त्री के स्वातंत्र्य और उनके विवेकवती होने के उदाहरण हैं|
वाल्मीकि रामायण में चित्रित पात्र यथार्थवादी सामाजिक जीवन के बहुत अधिक निकट हैं| रामायण में कैकेयी जैसी पात्र है जो दशरथ को अपने सौन्दर्य ,युद्ध कौशल और प्रतिभा से इतना प्रभावित करती है कि वे उसे कभी भी दो वरदान माँगने के लिए वचन देते हैं| और उन्ही दो वचनों पर रामायण की कथा आगे चलती है| तारा अपने महाबली पति बालि का विरोध करती है| मंदोदरी रावण से सीताहरण को लेकर असहमति ही नहीं व्यक्त करती बल्कि रावण का स्पष्ट विरोध भी करती है| रावण से सीता कहती हैं- ‘तू गीदड़ है और मुझ सिंहिनी की कामना करता है|’ सीता से रावण भयभीत ही प्रतीत होता है| महाभारत काल में तो कुंती गांधारी,दौपदी जैसे और ऐसे पात्र हैं जो अपनी स्वतंत्रता और अपने निर्णयों के लिए जाने जाते हैं| सूर्य से कुंती के प्रेम की कथा,शांतनु और मत्स्यगंधा की प्रेम कथा,स्वयंबर की अनेक शर्तों के बीच स्त्री की अस्मिता और उसकी तेजस्विता को महत्त्व भी मिला| महाभारत के पुरुष पात्र स्त्रियों की अपेक्षा कम तेजस्वी लगते हैं| शांतनु की पहली पत्नी गंगा अपना वचन निभाकर चली जाती है,गंगापुत्र भीष्म कभी विवाह न करने की प्रतीज्ञा लेकर पिता के राज्य की सेवा में अपने को खपा देता है| इस अतुलित बलशाली का अंत भी एक किन्नर शिखंडी के तीर से होता है|दौपदी के चीरहरण की रोमहर्षक कथा दरबार के सभी दरबारियों के सामने हुए अत्याचार की घ्रणित कहानी अभी तक हमें स्त्री विमर्श के बारे में गंभीर होने के लिए प्रेरित करती है|उसके पांच पतियों के साथ रहने और द्रोपदी से पांचाली बनाये जाने अथवा स्वयं बन जाने की लोक परंपरा को भी संवेदना के गहरे आलोक में समझने की आवश्यकता है| सहस्राब्दियों बाद भी कुंती और दौपदी का नाम बहुत आदर से लिया जाता है ,जबकि आज के युग में किसी स्त्री का विवाहेतर संबंध कोई पुरुष स्वीकार नहीं करता| ये जो पुरुष सतात्म्क सामाजिक अनुशासन है इसने सदैव ऐसी स्त्रियों को न केवल प्रताड़ित किया बल्कि अधिकतर उन्हें मृत्युदंड ही दिया है|
प्राचीन काल की स्त्रियाँ स्वाधीन हैं| विभिन्न सांस्कृतिक समाजों में वे देवी रूप में मातृसत्ता का प्रतीक भी हैं|नयी अभिनेत्री आज भी जब हमारे प्राचीन भारतीय रंगमंच की स्थापित नायिकाओं को नए समय के नए सन्दर्भ में प्रस्तुत करती है और जब कैकेयी,राधा,सीता,अहिल्या,सावित्री,मत्स्यगंधा,गांधारी,कुंती
दौपदी,सुभद्रा,वसंतसेना,यशोधरा,आम्रपाली जैसे पात्र के रूप को सही ढंग से प्रकट कर पाती है तो
उसकी सभी ओर प्रशंसा होती है| संस्कृत नाटकों में भी अनेक सीता,देवकी,यशोदा,शकुन्तला,दमयंती,
यशोधरा,कुंती,द्रोपदी,गांधारी आदि पौराणिक स्त्री पात्रों के अलावा वसंतसेना,मालविका,वासवदत्ता रत्नावली शारदा आदि ऐसी स्त्री पात्र उपस्थित हुई हैं जो हमारी संस्कृति को गहरे तक प्रभावित करती हैं| ये स्त्री पात्र अपने रूढ़ हो चुके चरित्र के कारण सदा के लिए विख्यात हो चुकी हैं|विश्वविख्यात आचार्य मंडन मिश्र और शंकराचार्य के शास्त्रार्थ का निर्णय करने के लिए विद्वत मंडली मंडन मिश्र की पत्नी शारदा को नियुक्त करती है और उसी के निर्णय से मंडन मिश्र शास्त्रार्थ में पराजित हो जाते हैं|शारदा के निर्णय की बहुत सराहना की जाती है| इसी प्रकार नगर सुन्दरी चुने जाने के बाद वसंतसेना को आदरपूर्वक चार मल्लों की डोली पर बैठा कर पूरी उज्जयिनी में घुमाया जाता है|किसी दशा में ये सब प्राचीन स्त्रियाँ पराधीन नहीं है|
अभिनय के क्षेत्र में नायिका भेद करते समय भरत ने नाट्यशास्त्र के बाइसवें अध्याय में श्लोक-213 से 220 तक नायिकाओं के आठ प्रकार बताएं हैं| जो क्रमश: 1. वासकसज्जा(अपने घर को सजा कर अपने पति की प्रणय कामना से प्रतीक्षा करती है|)2.विराहोत्कंठिता (जो अपने प्रिय के विरह में उत्कंठित या व्याकुल है|)3.स्वाधीनभतृका (जो सौभाग्य स्वाभिमान से परिपूर्ण अपने पति अथवा प्रेमी को अपने आधीन रखती है|)4.कलहान्तरिता(जो ईर्ष्यावश हुए कलह के कारण छोड़ करे चले गए प्रिय के प्रति क्रोध से भरी है|)5.खंडिता (जिसका प्रिय किसी अन्य के साथ आसक्त होकर चला गया है उसके दुख से जो दुखी है|)6.विप्रलब्धा (जिसका प्रिय केवल सन्देश भेजता है और मिलने नहीं आता )7.प्रोषितपतिका (जिसका पति किसी कार्य से बाहर चला गया है|)8.अभिसारिका (जो लोकलाज छोड़कर प्रिय से मिलन हेतु अभिसार करती है |)
इसके अलावा सामाजिक स्थिति के अनुरूप चौबीसवें अध्याय में भरत मुनि नायिकाओं के चार रूपों की चर्चा करते हैं,जो इस प्रकार है-1.दिव्या, अर्थात दिव्य स्त्री,योगिनी अथवा सिद्ध स्त्री | 2.नृपपत्नी ,अर्थात –महारानी आदि|3.कुलस्त्री अर्थात अभिजन सामाजिक परिवार की कुलीन स्त्री|4.गणिका,अर्थात नर्तकी पुरुषो के आमोद प्रमोद का उपादान बनने वाली| साथ ही स्त्रियों के स्वभाव आदि के अनुसार भरत कहते है कि ये उत्तमा,मध्यमा,अधमा तीन कोटियों में विभाजित की जा सकती हैं| ‘उत्तमा’ अर्थात जो –मृदु ,चंचलतारहित, स्मितभाषिणी,अनिष्ठुर ,गुरुजनों की सेवा करने वाली,सलज्जा ,विनम्र,संस्कारी कुल की हो , तथा जो माधुर्य,गाम्भीर्य और धैर्य आदि गुणों से युक्त हो| जिसमें उक्त गुणों में से कुछ कम गुण हो वह ‘मध्यमा’ और जिसमें ये सब गुणा न हों वह ‘अधमा’ नायिका समझी जाती है| इन्हें ही नायकों की भाँति - धीरा,ललिता,उदात्ता,और शांता आदि कर्म से भी अभिनय हेतु चुना जा सकता है| इस प्रकार नायिकाओं के भेदोपभेद करते हुए अनंत भेद किये जा सकते हैं| हम देखते है कि स्त्रियाँ पुरुषों के सामान ही आदिकाल से सामाजिक जीवन में सहभागी रही हैं|
प्रदर्शनकारी कलाओं और ललित कलाओं के क्षेत्र में भी स्त्रियों की लगातार सामान भागीदारी रही है|यद्यपि ललित कलाओं और प्रदर्शनकारी कलाओं में अंतर होता है| जिन्हें हम ललित कलाएं कहते हैं उन सभी कला क्षेत्रों में भी स्त्रियों के सहभाग की सदैव आवश्यकता रही है| हमारी सभ्यता में अभिनय,नृत्य और संगीत आदि की उत्पत्ति तो शिव और पार्वती से ही हुई है| महागौरी को लास्य और स्त्रियों के सभी नृत्य रूप की अधिष्ठात्री के रूप में स्वीकार किया जाता है| भरत मुनि का ‘नाट्यशास्त्र ’ तो समस्त कलाओं,विद्याओं,शिल्पों,कौशलों,योग आदि का कोश है|प्राचीन भारत में जो सांस्कृतिक परंपराएं हमें देखने को मिलाती हैं उन पर भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की अमिट छाप है-
न तज्ज्ञानं न तत्छिल्पं न सा विद्या न सा कला|
नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येSस्मिन यन्न दृश्यते ||(ना.शा.1/116) भरतमुनि के और उनके टीकाकारों के अनुसार यह ग्रन्थ पंचम वेद के रूप में विख्यात है और इसकी रचना स्त्री और दलित समाज सहित सभी वर्णों के लिए की गयी है| इसे पढ़ने जानने और कलाओं को सीखने के लिए किसी व्यक्ति को वर्जित नहीं किया गया है| भरतमुनि जिन ललित कलाओं का उल्लेख करते हैं वे –वास्तु,चित्र,स्थापत्य,संगीत,काव्य,नृत्य और अभिनय हैं| तात्पर्य यह कि नाट्यशास्त्र हमारी संस्कृति का ऐसा महाकोश है जिसमें स्त्रियों के कौशल आदि पर भी सर्वप्रथम गंभीरता से विचार किया गया है|कलाओं के क्षेत्र में न कोई शुद्धतावादी दृष्टिकोण है न कोई वर्जना ही है,ये कलाएं और कलाकार स्वभावत: स्वतन्त्र हैं| इससे ही आगे चलकर अभिनवगुप्त ने –स्वतन्त्रकालाशास्त्र की विवेचना की है| स्त्रियों के अभिनय के क्षेत्र में उनका वेश कैसा हो उनका केश विन्यास कैसा हो,उनका अंग-हस्त,पाद,कटि,अक्षि आदि का संचालन कैसा हो इन सब विषयों पर विस्तार से नाट्यशास्त्र में विचार किया गया है|तात्पर्य यह कि स्त्रियाँ स्वेच्छा से प्राचीन काल से प्रदर्शनकारी कलाओं के क्षेत्र में भागीदार होती रही हैं|
बाइसवें अध्याय में भरत कहते हैं –‘संसार में सभी लोग सुख चाहते हैं|सुख का मूल स्त्री है|स्त्रियाँ विभिन्न शीलों वाली होती हैं| ’ (नाशा.22/90) इसी अवसर पर भरतमुनि ‘स्त्रीजनकृतप्रयोग’ अर्थात स्त्रीप्रेक्षा- की चर्चा करते हैं जिसमें स्त्रियाँ ही पुरुषों का भी अभिनय करती हैं| आदि कवि वाल्मीकि के अनुसार महाराज दशरथ के समय अयोध्या में स्त्रियों के अनेक नाटक दल थे-
‘वधूनाटकसंघैश्च संयुक्तां सर्वत:पुरीम ’ (वा.रा.5/12-बालकाण्ड) अर्थात रामायण काल में स्त्रियाँ अपने नाट्यसंघों की मालकिन होती थीं| तात्पर्य यह कि दशरथ के समय में अयोध्या में उनके लिए कहीं कोई वर्जना नहीं रही होगी| स्त्रियों को लेकर किसी प्रकार की वर्जना या कुंठा आदि का भाव हमारे प्राचीन समाज में नहीं दिखाई देता| भरतमुनि अभिनय,नृत्य,संगीत,आदि ललित कलाओं के अलावा उपयोगी कलाओं पर भी विचार करते हैं जैसे-तौरिप का उल्लेख भरतमुनि करते हैं ,तौरिप नाट्यमंडली के संगीत का मुखिया होता था जिसे आज संगीत निदेशक कहा जाता है| सभी प्रकार के वादक,गायक और नर्तक उसके आधीन होते थे|इसके अलावा मुकुटकार,रंगरेज,वेषकार,आभरणकार,माली ,कारूक(काष्ठ्शिल्पी) आदि का भी उपयोग इन प्रदर्शनकारी कलाओं में किया जाता था| इन सभी कलाओं में स्त्रियों की भी सामान भागीदारी होती थी|
नाटक के अनेक भेदोपभेद के साथ ही कथक,भरतनाट्यम,रामलीला,रासलीला ,डांडिया, विदेसिया,गरबा,नाचा,कथकली,कठपुतली- जैसी अनेक लोक काव्य नाट्य की परंपराओं में भी स्त्रियों की भागीदारी सदैव बनी रही|
स्त्रियों के सहयोग और उनके नृत्य,गायन और सक्रिय भागीदारी के बिना ये परंपराएं और उत्सव संभव ही न थे| आज जो प्रदर्शनकारी कलाओं का रूप है वह अधिकाँश तकनीकि और विज्ञान के आधीन है| आज कला साधना के क्षेत्र में वैसी साधना नहीं दिखाई देती जितनी प्राचीन काल में थी| तकनीकि की सहायता से स्वर को कटु से मधुर बनाया जा सकता है| नौसिखिया गायक भी नए वाद्यों की सहायता से कुशल प्रस्तुति देने लगे हैं| तकनीकि के प्रभाव से ही फिल्मों में नृत्य न कर सकने वाले कलाकार भी नाचते हुए दिखाई देने लगते हैं|लेकिन संगीत की साधना करने वाले ध्रुवपद गायकी वाले,कथक और कथकली नृत्य वाले, रंगमंच वाले कलाकार आज भी अपनी साधना में तल्लीन हैं| जहां एक ओर शास्त्रीय कलाओं और रंगमंच का पराभव हुआ है वहीं दूसरी ओर नुक्कड़ नाटक करना या फिल्म बनाना आसान हो गया है|
संपर्क: सी-45/वाई-4 ,दिलशाद गार्डन,दिल्ली-110095
b.mishra59@gmail.com
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पुस्तक चर्चा:
भारतीय सौन्दर्य दर्शन की चर्चा हमारे विद्वत समाज में बहुत समय से की जा रही है| भरत मुनि का ग्रन्थ ‘नाट्यशास्त्र’ भारतीय सौन्दर्य चेतना का आकर ग्रन्थ है| इस दिशा में संस्कृत नाट्य के अतिरिक्त भरतकालीन कलाओं की चर्चा भी अक्सर की जाती है|आदरणीय कमलेश दत्त त्रिपाठी और राधावल्लभ त्रिपाठी जैसे नाट्यशास्त्र के बड़े विद्वानों ने भरत मुनि के अवदान को बहुविध परिभाषित और व्याख्यायित भी किया है| लेखक को इन विद्वानों का स्नेह भी मिला| इसी भारतीय सौन्दर्य चेतना को आगे बढाते हुए गत दिनों भारतेंदु मिश्र की पुस्तक ‘भरतकालीन कलाएं ’ का प्रकाशन संगीत नाटक अकादमी ,नई दिल्ली से हुआ है| हालांकि भारतेंदु जी की साहित्य की अनेक विधाओं में दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, परन्तु इस पुस्तक की बात और है| इस पुस्तक की रचना के समय लेखक को प्रख्यात रंग निदेशक-स्व.हबीब तनवीर और पणिक्कर साहब जैसे विद्वानों का भी आशीर्वाद मिला|इस पुस्तक में भरत मुनि की रचना ‘नाट्यशास्त्र’ को लेखक ने समस्त भारतीय कलाओं का उद्गम माना है| प्रस्तुत है इसी पुस्तक पर केन्द्रित भारतेंदु मिश्र जी से बातचीत-
रश्मिशील- अर्थात हमारी समकालीन लोककलाओं में जो सौन्दर्य चेतना है वह प्राचीन भारतीय परंपरा से जुडी है?
भरतकालीन कलाएं : भारतेंदु मिश्र
रश्मिशील- भारतीय सौन्दर्य दर्शन को आप किस रूप में चिन्हित करते हैं?
भारतेंदु मिश्र- रश्मिशील जी, ये बहुत व्यापक प्रश्न है और इसकी अवधारणा हमें वैदिक वांग्मय से नैसर्गिक रूप में मिलती है जहां ऋग्वेद में संवाद हैं और सामवेद में संगीत है | हालांकि भारतीय सौन्दर्य चेतना ईसा पूर्व चौथी सदी के लगभग से हमारे समाज में व्याप्त रही है,इसके प्रमाण मिलते हैं| इसी समय में नाट्यशास्त्र जैसे आकर ग्रन्थ की रचना हुई होगी| भरत की दृष्टि मूलत: लोकवादी है,उसमें स्त्री सहित दलित आदि सभी प्रकार के आम जन का सामान रूप से स्वागत है| वह आदिदेव शिव और पार्वती के नृत्य से उत्पन्न हुआ है| शिव आदि देव हैं और उनके दरबार में सुर असुर सभी का सामान रूप से स्थान है| वहां ब्राह्मणवाद या मनुवाद की धर्मशास्त्रीय अवधारणाओं का वैसा अनुप्रयोग नहीं किया गया है| रस की अवधारणा मानवीय मनोविज्ञान से जुडी है न कि धार्मिक और नैतिक आचरण आदि से| इस लिए भारतीय सौन्दर्य की अवधारणा रस मूला है| आनंद ही उसका अंतिम प्रयोजन है| नाट्यशास्त्र में आनंद की जो लोकवादी सौन्दर्य चेतना दिखाई देती है वह कदाचित विश्व साहित्य में अन्यत्र नहीं है| यूनानी सभ्यता में भी भारतीय रस की अवधारणा जैसा उपादान नहीं है| इसलिए भारतीय सौन्दर्य दर्शन सदियों से लेकर आज तक नैसर्गिक लोकरंजन से जुडी हमारी कलाओं में व्याप्त है|

भारतेंदु मिश्र- जी यही तो मैं कह रहा हूँ| समय के प्रवाह में उनके रूपाकारों में परिवर्तन आये हैं| तकनीकि में ,माध्यम में ,स्थान आदि में परिवर्तन आया है लेकिन आधार तो बहरहाल वही है|
रश्मिशील- अभिनय,नृत्य,संगीत आदि में तो बहुत परिवर्तन हो गया है?
भारतेंदु मिश्र- जी, एक दृष्टि से आप कह सकती हैं कि बहुत परिवर्तन हुआ है किन्तु आज भी रंगमंच के आधार भूत सिद्धांत तो वही हैं| नृत्य के शास्त्रीय और उपशास्त्रीय तरीके भरतमुनि के अनुसार ही चलते हैं| ध्रुवागान आदि में तो कोई परिवर्तन नहीं हुआ| रंगमंड़प का विधान सूत्रधार आदि का प्रयोग तो वैसा ही होता है| प्रेक्षागारों का रूप भी बहुत हद तक वैसा ही है जैसा भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में समझाया है| उस समय भी ‘तौरिप’ होता था जिसे संगीत निर्देशक के रूप में समझा जा सकता है| अभिनेताओं के अलावा आभरणकार ,मुकुटकार,वेषकार,मालाकार,रंगरे ज,कारूक (काष्ठ्शिल्पी) आदि होते थे आज भी ये सब प्रकार के कलाकार नाटक खेलने के समय जुटते हैं| न वीणा में परिवर्तन हुआ न वंशी में बदलाव हुआ, न सात स्वरों में बदलाव हुआ,न मृदंगम में परिवर्तन हुआ,न पखावज में | अब टीवी देखने वाले लोगों को नहीं समझ में आयेगा किन्तु कलाओं की साधना करने वाले आपके देश में आज भी भरतमुनि के द्वारा सुझाए गए सिद्धांतों और कला व्यापारों का उपयोग जाने अनजाने करते हैं|
रश्मिशील- क्या प्राचीन नाटकों में स्त्रियों का अभिनय स्त्रियाँ ही करती थीं?
भारतेंदु मिश्र- जी बिलकुल स्त्रियाँ ही नाटकों में अपना पात्र निभाती थीं| बल्कि कुछ नाटक के रूप तो केवल स्त्रियों के द्वारा ही अभिनीत किये जाते थे| लगभग १२०० वर्ष पहले हमारे समाज में मंदिर नहीं थे ,केवल शिवालय थे जिनमें आज जैसे देवी देवताओं की मूर्तियाँ नहीं थीं| किन्तु अधिकाँश राज्यों नगरों में रंगशालाएं होने के प्रमाण मिलते हैं| स्थानीय समाजों में रंगमंडली होती थी|केरल में कोडियाट्टम ,दक्षिण में भरतनाट्यम,कथकली आदि की जीवंत परंपरा में आप आज भी देख सकती हैं| भरतमुनि के रंगमंच पर स्त्रियों के लिए कोई स्थान वर्जित क्षेत्र नहीं है| ये मध्यकाल में आक्रान्ताओं के आक्रमण के बाद विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के टकराव में स्त्री अस्मिता को और निम्न जातियों को मनुवाद की मार झेलनी पड़ी|
रश्मिशील- आप मानते हैं कि ‘नाट्यशास्त्र’ पर मनुवाद का प्रभाव नहीं है?
भारतेंदु मिश्र- जी बिलकुल नहीं है , भरतमुनि के बहुत बाद मध्यकाल में मनुस्मृति की रचना हुई,और धर्मशास्त्र के जातीय व्यवस्था वाले अधिकतर नियम भी दसवीं सदी के आसपास लागू हुए| भरतमुनि का समय उनसे बहुत पहले का है| इसी मध्यकाल में हमारी कलाओंपर धार्मिकता का आवरण चढ़ा |धर्म के नाम पर देवदासी जैसी प्रथा को कुप्रथा के रूप में विक्सित किया गया स्त्रियों और दलित जनों पर धर्म-पाखण्ड और पुरोहितवाद के चलते राजाओं ने अत्याचार किये जाने लगे|इसी एक हजार वर्ष के समय में हमारी लोकवादी संस्कृति छिन्न हुई| कालान्तर में हमारी कलाओं पर भी कहीं न कहीं पुरोहितवाद का प्रभाव पड़ा| कलाओं को धार्मिक-नैतिक मूल्यों का संवाहक समझा जाने लगा| निर्गुनिया,सूफी,संतों आदि ने काव्य और संगीत जैसी कलाओं के माध्यम से समाज को मानवीय प्रगति के मार्ग पर आगे बढाया|
रश्मिशील- भरतमुनि ने किन कलाओं को अपने ग्रन्थ में विवेचित किया है?
भारतेंदु मिश्र- भरतमुनि नाट्यशास्त्र के पहले ही अध्याय में स्पष्ट कर देते हैं कि इस नाटक में समस्त कलाएं समाविष्ट हो जाती हैं|इसीलिए हजारों वर्षों के अंतराल के बावजूद आम जन के मन में नाटक के प्रति आकर्षण समाप्त नहीं हुआ-
न तज्ज्ञानं न तत्छिल्पं न सा विद्या न सा कला|नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येSस्मिन यन्न दृश्यते ||(ना.शा.1/116) अर्थात संसार में ऐसा कोई- ज्ञान,शिल्प,विद्या ,कला, योग ,कर्म आदि नहीं है जिसका समावेश नाटक में न हो| मैंने इस तथ्य को तर्कों के आधार पर भी देखा परखा है| ‘भरतकालीन कलाएं ’में शोध और विश्लेषण करते समय मैंने – अभिनय,काव्य,संगीत,नृत्य,वास्तु ,चित्र,मूर्तिकला जैसी ललित कलाओं का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है| भरतमुनि ने इन कलाओं के अतिरिक्त तौरिप,मुकुटकार,वेषकार, रजक, काष्ठशिल्पी,आभरण बनाने वाले सहित अन्य शिल्प कलाओं का भी यथा अवसर उल्लेख किया है|
रश्मिशील –भरतमुनि के समय में वास्तुकला का क्या रूप रहा होगा?
भारतेंदु मिश्र- रश्मिशील जी, भरतमुनि के समय में वास्तुकला बहुत प्रगति पर थी| उन्होंने वर्गाकार,आयताकार,त्रिभुजाकार और वृत्ताकार भवनों के निर्माण का उल्लेख किया है| भरतमुनि ने रंगमंडप के लिए विविध आकार के भवन बनाए जाने की आवश्यकता पर बल दिया है| मंच कितना हो प्रेक्षकों के लिए बैठने के लिए कितना स्थान हो यह भी समझाया है| ये भवन जिन चार स्तंभों पर खडा किया जाए उन्हें ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र सभी के द्वारा स्थापित किया जाए| भित्तियों पर प्लास्टर आदि करने तथा उनकी सजावट आदि किये जाने का भी व्यापक उल्लेख भरतमुनि ने किया है|
रश्मिशील- जी यह सब तो ठीक है किन्तु अब मार्क्सवादी वैचारिकता वाली इक्कीसवीं सदी में हजारों वर्षो बाद क्या कोई भरतमुनि की सौन्दर्य दृष्टि आप देख पाते हैं,अथवा उसकी प्रासंगिकता अनुभव करते हैं?
भारतेंदु मिश्र- जी आपकी चिंता सही है कि हजारों वर्षों के अंतराल में प्राचीन साहित्य दर्शन कलाओं आदि का रूप नष्ट हो चुका है या परिवर्तित हो चुका है तो अब उसे क्यों पढ़ा जाए? देखिए हम अपना इतिहास पढ़ते हैं,और अपनी शाश्वत परंपराओं पर गर्व करते हैं| दुनिया के किसी भी देश या समाज ने अपने अतीत के गौरव को नष्ट नहीं किया| कुछ उत्तर आधुनिकतावादी नए मार्क्सवादी विचारक इतिहास को शवसाधना से जोड़कर देखते हैं ,इतिहास और संस्कृति में सबकुछ वैसा त्याज्य नहीं है| यह उनका अज्ञान है|हमारा समाज केवल यथार्थ जीवी कभी नहीं रहा,परपराएं बनती बिगड़ती हैं बदलाव से हमेशा प्रगति नहीं होती है –विनाश भी होता है | सार्थक बदलाव हमारे समाज को प्रगतिशील बनाते हैं| जबतक ध्रुवा रहेगा,कथक रहेगा ,भरत नाट्यम है,रंगमंच और नाटक रहेगा,नृत्य रहेगा,संगीत रहेगा,रस सिद्धांत रहेगा–लोककलाएँ-नाचा,विदेसिया, गरबा,बिहू,नौटंकी, के अतिरिक्त मधुबनी पेंटिंग्स,फुलकारी,काष्ठशिल्प, मंदिरों की मूर्तियाँ,वास्तु आदि जीवंत हैं-भरतमुनि प्रासंगिक रहेंगे| मुझे लगता है कि आज इक्कीसवीं सदी में भी भरतमुनि की स्वतन्त्र कला चेतना का अपना महत्त्व है वे प्रस्थान बिंदु हैं ,उनका स्थान कोई और नहीं ले सकता|
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��भारतीय दार्शनिक परंपराएं ��(सत्कार्यवाद) ��मतभेद रहे मनभेद न हो।
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��शिवतांडव��चौदह स्वर ,व्याकरण��शिवरात्रि
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��भरत की सौंदर्य दृष्टि��भारतीय सौंदर्य चेतना��
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��भारतीय साहित्य /��कला का प्रयोजन��मम्मट��@भारतेंदु मिश्र
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☺️कायांतरण�� Transformation��नाट्यांश��@शास्त्रार्थ ,भारतेंदु मिश्र
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��सादगी का सौंदर्यशास्त्र��भारतीय कला(Indian Aesthetics) @भारतेंदु मिश्र
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��चमेली जान ( कहानी)�� First transgender story in Hindi��@बलभद्र प्रसाद दीक...
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Article 1
चित्र :: संदीप राशिनकर |
कनबतियां @ भारतेंदु मिश्र
प्रोफेसर चैतन्य सिंह कनबतियां करने के शौक़ीन थे| मीटिंग से पहले कॉलेज प्रभारी प्राचार्य के कमरे में घुसकर उनके कान में कुछ कहा।
प्राचार्य मुस्कुराए सिर हिलाकर बोले "ठीक है... केवल दो ।"
बगल के हाल में मीटिंग शुरू होने को थी शिक्षकों की समस्याओं पर विचार होना था।शिक्षक प्राचार्य के सम्मान में उठ कर खड़े हुए
इसी बीच चैतन्य सिंह ने बैठे बैठे दो गालियां प्राचार्य को देते हुए कहा-"हरामी,...कमीने ..हमारी मांगें पूरी कर..."
बगल के हाल में मीटिंग शुरू होने को थी शिक्षकों की समस्याओं पर विचार होना था।शिक्षक प्राचार्य के सम्मान में उठ कर खड़े हुए
इसी बीच चैतन्य सिंह ने बैठे बैठे दो गालियां प्राचार्य को देते हुए कहा-"हरामी,...कमीने ..हमारी मांगें पूरी कर..."
दूसरे शिक्षक समझाने दौड़े, भाषा की ...मर्यादा की बात करने लगे।..
समझौते की मुद्रा बनी लेकिन असल मुद्दा खो गया। प्राचार्य ने चैतन्य सिंह को माफ कर महानता का परिचय देते हुए उन्हें गुलदस्ता भेंट किया।
सबने एक सुर से कामरेड चैतन्य जिंदाबाद कहकर उन्हें अपना नेता बना लिया। साथी शिक्षक टूटी कुर्सियों पर अपनी तशरीफ टिकाकर देर तक तालियाँ बजाते रहे|
संपर्क :
9868031384
समझौते की मुद्रा बनी लेकिन असल मुद्दा खो गया। प्राचार्य ने चैतन्य सिंह को माफ कर महानता का परिचय देते हुए उन्हें गुलदस्ता भेंट किया।
सबने एक सुर से कामरेड चैतन्य जिंदाबाद कहकर उन्हें अपना नेता बना लिया। साथी शिक्षक टूटी कुर्सियों पर अपनी तशरीफ टिकाकर देर तक तालियाँ बजाते रहे|
संपर्क :
9868031384
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☺️मन का रंग �� ( कहानी)���� @फणीश्वरनाथ रेणु��स्वर-भारतेंदु मिश्र��
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Article 1
पुण्य स्मृति को नमन
भारतेंदु मिश्र
मुझे मेरे नाटक 'शास्त्रार्थ'की स्क्रिप्ट के लिए स्वयं फोन करके बधाई देने वाले महान रंगकर्मी और सहज मनुष्य पणिक्कर जी की पुण्यस्मृति को नमन |
आदरणीय प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी जी ने भोपाल में संस्कृत नाट्य महोत्सव का आयोजन किया था| भारत भवन भोपाल में अनेक महान रंगनिर्देशकों को सुनने चीन्हने का अवसर मिला|श्रद्धेय कावालम नारायण पणिक्कर जी से एक ही संवाद और तब एक ही मुलाक़ात हुई थी,उनके द्वारा निर्देशित शाकुंतल भी तभी देखा था|
अति उत्साहवश मैंने उन्हें हिन्दी में प्रकाशित 'शास्त्रार्थ'की प्रति भेंट की तो उन्होंने कहा -'मुझे हिन्दी में पढ़कर समझने में कठिनाई होती है|'दिल्ली लौटकर फिर मैंने उन्हें डॉ.प्रमोद कावलम द्वारा मलयालम भाषा में आनूदित स्क्रिप्ट की प्रति उनके पते पर भेज दी| ये प्रति मुझे आकाशवाणी के सौजन्य से मिली थी| इसके बाद उस बात को भूल गया क्योकि अक्सर बड़े लोग अपनी व्यस्तता में संवाद नही कर पाते| लगभग दो महीने बाद उनका फोन आया|तब मुझे पता लगा कि बड़े लोग सचमुच कैसे कितने बड़े होते हैं|देर तक उन्होंने नाटक के संवादों पर बात की|उसे नयी कथा के रूप में इसे मंचित कराने के लिए भी कहा| किन्तु वह सब संभव न हो सका| ऐसे ही हबीब तनवीर साहब से मिलने के दो तीन अवसर मिले किन्तु इन लोगों में मनुष्यता और इतनी सहजता देखने को मिली जो अन्यत्र दुर्लभ होती है| खासकर हिन्दी के तथाकथित महानों से यदि तुलना करें तो बहुत निराशा होती है| उनकी स्मृति को नमन |![चित्र में ये शामिल हो सकता है: Neeraj Goswamy, खड़े रहना और बाहर]()
आदरणीय प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी जी ने भोपाल में संस्कृत नाट्य महोत्सव का आयोजन किया था| भारत भवन भोपाल में अनेक महान रंगनिर्देशकों को सुनने चीन्हने का अवसर मिला|श्रद्धेय कावालम नारायण पणिक्कर जी से एक ही संवाद और तब एक ही मुलाक़ात हुई थी,उनके द्वारा निर्देशित शाकुंतल भी तभी देखा था|
अति उत्साहवश मैंने उन्हें हिन्दी में प्रकाशित 'शास्त्रार्थ'की प्रति भेंट की तो उन्होंने कहा -'मुझे हिन्दी में पढ़कर समझने में कठिनाई होती है|'दिल्ली लौटकर फिर मैंने उन्हें डॉ.प्रमोद कावलम द्वारा मलयालम भाषा में आनूदित स्क्रिप्ट की प्रति उनके पते पर भेज दी| ये प्रति मुझे आकाशवाणी के सौजन्य से मिली थी| इसके बाद उस बात को भूल गया क्योकि अक्सर बड़े लोग अपनी व्यस्तता में संवाद नही कर पाते| लगभग दो महीने बाद उनका फोन आया|तब मुझे पता लगा कि बड़े लोग सचमुच कैसे कितने बड़े होते हैं|देर तक उन्होंने नाटक के संवादों पर बात की|उसे नयी कथा के रूप में इसे मंचित कराने के लिए भी कहा| किन्तु वह सब संभव न हो सका| ऐसे ही हबीब तनवीर साहब से मिलने के दो तीन अवसर मिले किन्तु इन लोगों में मनुष्यता और इतनी सहजता देखने को मिली जो अन्यत्र दुर्लभ होती है| खासकर हिन्दी के तथाकथित महानों से यदि तुलना करें तो बहुत निराशा होती है| उनकी स्मृति को नमन |

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